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11 December, 2010

A hindi story of a great writer

भीष्म साहनी की कहानी
साग-मीट
        साग-मीट बनाना क्या मुश्किल है। आज शाम खाना यहीं खाकर जाओ, मैं तुम्हारे सामने बनवाऊँगी, सीख भी लेना और खा भी लेना । रुकोगी न? इन्हे साग-मीट खाना बहुत पसन्द है। जब कभी दोस्तों का खाना करते हैं, तो साग-मीट जरूर बनवाते हैं । हाय, साग-मीट तो जग्गा बनाता था,वह होता तो मैं उससे साग-मीट बनवाकर तुम्हे खिलाती । उसके हाथ में बहुत रस था। वह उसमें दही डालता, लहसुन डालता, जाने क्या- क्या डालता। बड़े शौक से बनाता था। मेरे तो तीन-तीन डब्बे घी के महीने में निकल जाते हैं। नौकरों के लिए डालडा रखा हुआ है, पर कौन जाने, मुए हमें डालडा खिलाते हों और खुद अच्छा घी हड़प जाते हों । आज के जमाने में किसी का एतबार नहीं किया जा सकता । मैं ताले तो नहीं लगा सकती । मुझसे ताले नहीं लगते । मैं कहती हूँ, खाते हैं तो खाएँ । कितना खा लेंगे । मुझसे अपनी जान नहीं सम्भाली जाती, अब ताले कौन लगाये ? यह मथरा सात रोटियाँ सवेरे और सात रोटियाँ गिनकर शाम को खाता है । बीच में इसे चाय भी चाहिए, और घर में जो मिठाई हो, वह भी दो । पर मैं कहती हूँ टिका हुआ तो है, आज किसी नौकर का भरोसा थोड़े ही है । किसी भी वक्त उठकर कह देते हैं – मैं जा रहा हूँ ।
        ये भी मुझे यही कहते हैं, कुत्ते के मुँह में हड्डी दिये रहो, तो नहीं भूँकेगा । सत्तर रुपये पर इसे रखा था, अब सौ लेता है । फिर भी इसके तेवर चढ़े रहते हैं । पर जग्गा नेक आदमी था । बड़ा नमक हलाल । वह नौकर थोड़े ही था, वह तो घर का आदमी था । वह इन्हे बहुत मानता था । एक बार ये कुछ कह दें, तो मजाल है, वह पूरा न करे । बड़ा वफादार था । ये भी तो नौकर को नौकर नहीं समझते । घर का आदमी समझते हैं । जब कभी सौ- पचास की जरूरत होती, झट से निकालकर दे देते । कहीं कोई लिखत नहीं, कोई हिसाब नहीं ।
       जग्गा बीवी ब्याह कर लाया, तो दो जोड़े और एक गर्म कोट सिलवाकर दिया । मैं इनसे कहूँ— जी, क्यों पैसे लुटाते हो । नौकर किसी के अपने नहीं होते । इसी को पाँच रुपये कहीं से ज्यादा मिल जाये तो यह पीठ फेर लेगा । ये कहते, तू अपना काम देख, पानी निकालने से कुएँ खाली नहीं होते । यह हमें साग-मीट खिलाता रहे, मुझसे जो माँगेगा, दूँगा । इस जैसा बावर्ची तो शहर भर में नहीं होगा ।
         मुझे वह दिन याद है, जब जग्गे को लेकर आये थे । बाहर से ही आवाज  लगाई, ले सुमित्रा, तेरे लिए नौकर लाया हूँ । जब भी ये तुझसे कहे, इसे चाय के साथ खाने के लिए जरूर दे दिया कर । एक मठरी ज्यादा दे देने से तेरा नुकसान नहीं होगा । इसे घर से मोह पड़ गया, तो वर्षों तक मेरे साथ बना रहेगा । तेरा सारा काम कर दिया करेगा।
        और जग्गा भी ऐसा, जैसे जंगल से हिरन पकड़ लाए हों । बड़ी-बड़ी उसकी आँखें, हिरन की तरह हैरान-सा देखता रहता । वही बात हुई । जग्गे को मोह हो गया । पर यह छोटी उम्र में होता है । बड़े-बड़े मुस्टण्डे नौकर, जो सड़कों पर घूमते रहते हैं, इन्हे क्या मोह होगा । बच्चे कोमल होते हैं, जैसा सिखाओ, सीख जाते हैं । जानवर सीख जाते हैं, तो ये क्यों न सीखेंगे ? इन्हे बस में करने के बड़े ढंग आते हैं ।
       तुम्हे जैकी याद है ना ? हाय, तुम जैकी को भूल गये ? जैकी कुत्ता, जिसे ये एक दोस्त के घर से उठाकर लाये थे, सभी को भूँकता फिरता था । पर इन्होने उसे ऐसा हाथ किया कि इन्ही के कदमों में चक्कर काटता फिरता था । उसे भी ऐसा ही मोह पड़ गया था । इनके साथ, मैं तुम्हे क्या बताऊँ दफ्तर से इनके लौटने का वक्त होता, तो जैकी के कान खड़े हो जाते । बाहर का सारा वक्त दसियों मोटरें दौड़ती रहतीं , पर जिस वक्त इनकी मोटर आती, तो उसे झट से पता चल जाता और भागकर बाहर पहुँच जाता । सीधा गेट पर जा पहुँचता । वहीं एक दिन गाड़ी के नीचे कुचला गया । यह मोह बहुत बुरी चीज है ।
       ये काँटे कहाँ से बनवाये हैं ? बड़े खूबसूरत हैं । हीरे कितने के आये ? सच्चे हैं ना ? आजकल हर चीज को आग लगी हुई है । मैनें यह नाक की लौंग बनवायी, इतना छोटा-सा  हीरा इसमें लगा है, पूरे सात सौ खुल गये । अब तो मुझे पहनते डर लगता है, जब जग्गा था तो मेरी जेवरों की पिटारी भी बाहर पड़ी रहती थी । कभी दो पैसे भी इधर-उधर नहीं हुए । मैं ऐसी भुलक्कड़ हूँ, कभी चेन गुसलखाने में रह जाती है, कभी तिपाई पर रह जाती, जग्ग उठाकर दे देता पर अब तो ऐसे नौकर आये हैं, हरे राम मैनें सारे जेवर उठाकर बैंक में रख दिये हैं । मथुरा से पहले एक नौकर था, मंसा नाम का । ऊपर से बड़ा शरीफ था । लगता, उसके मुँह में जबान ही नहीं है । पर एक दिन मैं पिछवाड़े की तरफ से घर आ रही थी, तो क्या देखती हूँ, मंसा छत पर खड़ा है और गली में खड़े आदमी को ऊपर से एक-एक करके कपड़े फेंक रहा है, ,मुझे देखते ही दोनों चंपत हो गये । मंसा गली में कूद गया और वहीं से भाग गया । आजकल नौकर रखने का जमाना नहीं है । मैं तो घर से बाहर निकल जाऊँ, तो डर लगा रहता है कि पीछे नौकर कहीं घर की सफाई ही न कर जाएँ । जग्गा था तो मुझे भी कोई चिन्ता नहीं होती थी । वह हाथ का बहुत साफ था ।
       तू कुछ खा भी ना । तू तो कुछ भी नहीं खाती । गर्म चाय मँगवाऊँ ? इसे छोड़ दे, यह ठण्डी पड़ गयी होगी, यह केक का टुकड़ा ले । बाजारी है पर बहुत अच्छा है । केक तो बनाती है कमला की सास, एक-से-एक बढ़िया । कभी उनमें चाकलेट डालती है, कभी कुछ, कभी कुछ । ‘वेंगर’ से लेने जाओ, तो जो केक मुए अठारह रुपये में बेचते हैं, कमला की सास पाँच रुपये में बना लेती है। बीच में अण्डे भी, दूध-चीनी भी, किशमिश और बादाम भी, और न जाने क्या-क्या। मुझसे अपनी जान नहीं सँभाली जाती, मैं क्या करूँगी । केक जग्गा भी बहुत अच्छे बनाता था। पर उसकी किस्मत खोटी थी, नहीं तो आज तुम्हे उसी के हाथ का बना केक खिलाती । हर तीसरे-चौथे दिन केक बनाता था, पर खुद कभी नहीं खाता था । मैं उससे कहूँ— तू भी एक टुकड़ा खा ले, पर नहीं । वह कहता, बीवी जी, यहाँ केक खाऊँगा तो बाहर मुझे केक कौन देगा?
          किसे मालूम था कि यों चला जाएगा । मैं तो अब भी कहती हूँ, बक देता तो बच जाता । पर अपनी-अपनी किस्मत है, कोई क्या करे ! इनके सामने उसने मुँह ही नहीं खोला । इन्हे बहुत मानता था । बोला इसलिए नहीं कि इनके दिल को ठेस पहुँचेगी । और क्या बात हो सकती थी ? अब अन्दर की बात इन्हे क्या मालूम ? वह बताएँ भी तो पता चले । वह तो मैं जानती थी । उसके मन में क्या था, उसने हवा तक नहीं लगने दी ।
         धीरे बोल.....दोपहर के वक्त किसी को क्या मालूम, सोया आदमी तो मोये बराबर होता है, हमारे घर में तो उस वक्त चिड़ी नहीं फड़कती । किसी को क्या खबर, घर के पिछवाड़े क्या हो रहा है ? मुझसे अपनी जान नहीं सँभाली जाती । भगवान झूठ न बुलवाये, एक दिन दोपहर को मैं उठी, गुसलखाने की तरफ जा रही थी, जब मुझे खटका-सा हुआ । मुझे लगा, जैसे कोई जग्गा की कोठरी तरफ जा रहा है । मुझे क्या खबर, कौन है, कौन नहीं है । फिर भी मर अन्दर से फुरनी फुरी— इस वक्त यहाँ कौन हो सकता है? जग्गे को तो इस वक्त ये दफ़्तर बुला लेते हैं ।
जग्गा तो इस वक्त दफ्तर में काम करता है, इनके लिए चाय-पाना बनाता है, चपरासीगिरी करता है । ये कहते थे कि घर के लिए कोई दूसरा नौकर मिल जाये तो जग्गे को दफ़्तर में रख लूँगा, फिर इस वक्त यहाँ कौन हो सकता है ?
            मैने खिड़की में से झाँककर देखा । हाय, यह तो विक्की है, मेरा देवर । काला सूट पहने, दबे पाँव चला जा रहा था, सीधे जग्गा की कोठरी के अंदर चला गया । मेरा दिल धक्क से रह गया । हाय मना, यह जग्गे की कोठरी में क्या करने गया है ? फिर मैनें सोचा, किसी काम से आया होगा । पर जग्गे की कोठरी में उसका क्या काम ? और यह इतने दबे पाँव जा रहा है ? मन में आया, इसी से जाकर पूछूँ । पर मुझसे मेरी जान नहीं सँभाली जाती । मैं लौटकर फिर पलंग पर पड़ रही, पर ध्यान मेरा बार-बार उसी तरफ जाये । भलेमानस घरों ऐसे काम नहीं करते । जो ऐसे काम करने हैं, तो शादी क्यों नहीं कर लेता ? किसी का घर क्यों खराब करता है ?
            तुमने जग्गे की घरवाली देखी थी ना ? बड़ी भोली-सी लड़की थी, इतनी गोरी, हाथ लगाये मैली होती थी । यह कलमुँहा किसी बहाने से दफ्तर से भाग आता था और उसकी कोठरी में जा घुसता था । उस दिन मेरी नजर पड़ गयी । असील-सी गाँव की लड़की, सहमी-सहमी-सी इस चंट के आगे क्या बोलती ?
            धीरे बोल.....इनके घर में बदचलनी बहुत है । ये ही एक शरीफ हैं, इनके चाचा ने भी दो-दो रखेल रखी थी, इनकी चाची, बुढ़िया, दोपहर को अपने एक नौकर से पाँव दबवाती थी। मैनें खुद देखा है, खाना खाने के बाद अपने कमरे में घुस जाती और पीछे-पीछे मुस्टण्डा शंकर पहुँच जाता ।
            अब ऐसी बातें छिपा तो नहीं रह सकतीं । एक दिन जग्गे ने ही देख लिया । इन्होने थर्मस मँगवाने के लिए जग्गे को घर भेजा । मैनें उसे थर्मस दी और वह अपनी कोठरी की तरफ चला गया । अचानक मैनें खिड़की से बाहर झाँककर देखा । विक्की, वही काला सूट पहने जग्गे की कोठरी में से बाहर निकल रहा था । ‘विक्की बाबू.....!’ जग्गे ने कहा । फिर उसका मुँह जैसे बन्द हो गया । फटी-फटी आँखों से उसे देखता रह गया । उधर विक्की, बिना उसकी ओर देखे, चुपचाप वहाँ से निकल गया । मेरा दिल धक्-धक् करने लगा । मैनें कहा, अब इसकी घरवाली की खैर नहीं । यह उसे धुन देगा । क्या मालूम, जान से ही मार डाले । इन लोगों का कुछ पता थोड़े ही लगता है, पर कोठरी के अन्दर से न हूँ, न हाँ ।
           मैं नहीं जानती, जग्गा कितनी देर तक अन्दर रहा । उसने अपनी बीवी से कुछ कहा या नहीं कहा । मैं तो जाकर लेट गयी, पर मैनें मन ही मन कहा कि आज मैं इनसे बात करूँगी । या तो जग्गे को चलता करें, या उससे कहें कि अपनी घरवाली को गाँव छोड़ आये । यहाँ इसका रहना ठीक नहीं ।
          लेटे-लेटे भी मेरे कान कोठरी की ओर लगे रहे । अभी वहाँ से चीखने-चिल्लाने, रोने- पीटने की आवाज आएगी । पर वहाँ बिल्कुल चुप ! मैनें मन-ही-मन कहा, ऐसा शरीफ आदमी भी किस काम का जो अपनी घरवाली को काबू में नहीं रख सकता । दो लप्पड़ उसके मुँह पर लगाता, वह अपने आप सीधे रास्ते पर आ जाती । दस तरीके हैं औरत को सीधे रास्ते पर लाने के । पर यहाँ न हूँ, न हाँ ।
          पलंग पर लेटे-लेटे ही मुझे ऐसी घबराहट हुई कि मुझे बाथरूम जाने की हाजत हो आयी । मुझे मुई कब्जी भी तो रहती है ना । रोज रात को ईसबगोल की भूसी दूध में डालकर लेती हूँ, तब जाकर सुबह पेट साफ होता है । कभी-कभी तो जान इतना घबराती है कि क्या बताऊँ । एक बार पूरे पाँच दिन कब्ज रही । ये मजाक करते थे । अब बाथरूम जाओगे तो बाथरूम साफ करना मुश्किल हो जाएगा । हाय, अब तो हँसा भी नहीं जाता । हँसती हूँ तो साँस फूलने लगती है । मुझे बावासीर की शिकायत भी तो रहती है ना । यहाँ एक मुसीबत थोड़े ही है। एक नहीं बीस दवाइयाँ खा चुकी हूँ ।
         डॉक्टर बोलता है, चला-फिरा करो । अब इस शरीर के साथ कौन चल-फिर सकता है? थोड़ा-सा भी चलूँ, तो सांस फूलने लगती है । डॉक्टर कहता है, मिठाई मत खाया करो, पर मुझसे हाथ रोआ ही नहीं जाता । घर में दो-तीन डब्बे मिठाई के हर वक्त मौजूद रहते हैं, पर बर्फी का टुकड़ा मुँह में डालने की देर है कि गुड़-गुड़ होने लगती है । डॉक्टर मुआ बार-बार कहता है, मिठाई खाना छोड़ दो । पर एक टुकड़ा भी मुँह में न डालूँ, तो फिर जंगलों में जा बैठूँ, दुनिया से फिर क्या लेना है ? मैं डॉक्टर से कहती हूँ, मुझे बैठे-बैठे ही ठीक कर दो । न मेरी मिठाई बन्द करो, न मुझे घूमने को कहो । अगर मुझे सैर करके ही दुरुस्त होना है, तो मुझे तुम्हारी क्या जरूरत है ? जब आते हो, पच्चास-पच्चास रुपये ले जाते हो । हम तुम्हे इतने पैसे भी दें, फिर भी तुम ठीक नहीं कर सको, तो फिर फीस किस बात की लेते हो ? हम पांडी-मजूर थोड़े ही हैं कि घूमते फिरें ।
           मैनें डाँटकर कहा, तो डॉक्टर अपने आप सीधा हो गया । कहने लगा, कोई बात नहीं, खाना खाने के बाद दो बड़े चम्मच इस दवाई को पी लिया करो । मैनें कहा, अब आया न सीधे रास्ते पर ! अब दो चम्मच रोज पी लेती हूँ । डकार आनी तो बन्द हो गयी है, पर कोई बात इधर-उधर की हो जाय और मन घबराने लगे, तो बाथरूम की हाजत होने लगती है । उस दिन क्लब में गयी, तो हरचरन की बीवी औरतों पर बड़ा रोआब गाँठ रही थी । कह रही थी मैं सात गोलियाँ रोज खाती हूँ मैंने सुना, पर चुप रही । मैंने कहा, यह भी कोई ऐंठने की बात है ? भगवान अहंकार न बुलवाए, पन्द्रह-पन्द्रह गोलियाँ भी रोज खायीं हैं, पर बाहर जाकर ढिंढोरा नहीं पीटा कि दवाई की पन्द्रह गोलियाँ रोज खाते हैं । डॉक्टर घर का पक्का रखा है, तीन सौ रुपया बँधा-बँधाया उसे हर महीने देते हैं, घर में कोई बीमार हो या न हो, अभी भी खाने वाली मेज पर जा के देखो, कुछ नहीं तो दस दवाई की शीशियाँ वहाँ पर रखी होंगी, कुछ ताकत की गोलियाँ, कुछ हाजमे की, और तरह-तरह की । जग्गे को सब मालूम था कि कौन सी गोली मुझे किस वक्त चाहिए । अपने आप लाकर दे दिया करता था । वह गया, तो दवाइयों का सारा सिलसिला ही खराब हो गया । .......तुम कुछ लो ना, तुम तो कुछ भी नहीं खा रही हो ।
           उस दिन शाम को जब ये घर आए, तो आते ही कहने लगे— कहाँ है जग्गा ? उससे कहो, पाँच आदमी रात को खाना खाने आएँगे, बढ़िया तरकारियाँ बनाए और साग-मीट बनाए । जग्गा आया, तो गुमसुम इनके सामने आकर खड़ा हो गया । चेहरा ऐसा पीला, जैसे मुर्दे का होता है । इन्होने बड़े ला़ड़ से पूँछा— क्यों जग्गे, क्या बात है, इतना चुप क्यों है ? क्या गाँव से कोई बुरी खबर आयी है ? पर जग्गा चुप, न हूँ न हाँ । इन्हे कहता भी तो क्या ? इनसे कैसे कहता कि आपका भाई मेरी घरवाली से मुँह काला कर रहा है । कोई गैरत भी तो होती है । इनके आगे तो वह आँख उठाकर नहीं देखता था । पर इनकी तबीयत को तो तुम जानती हो, बिगड़ जाएँ, तो सख्त बिगड़ते हैं, आगा-पीछा नहीं देखते । और तो और , मुझे भी नौकरों के सामने बेइज्जत कर देते हैं ।
          जब जग्गा कुछ नहीं बोला, तो इन्हे गुस्सा आ गया । जग्गा पत्थर की मूरत बना खड़ा था । जाने उसके मन में क्या था । बोल देता तो अपने दिल का गुबार निकाल लेता । मगर चुप ।
          ये उसे डाँटने लगे, तो मैंने रोक दिया । मैंने कहा, जी मेहमान आने वाले हैं, अभी सारा काम पड़ा है, जा जग्गा, तू रसोई में चल । वह उसी तरह गुमसुम रसोईघर में चला गया । थोड़ी देर बाद मैं रसोईघर में गयी कि खाने-वाने का देखूँ, तो वह वैसे का वैसा खड़ा था । रसोईघर के बीचोबीच पत्थर की मूरत बना हुआ था । मैंने कहा, इसकी बुद्धि पथरा गयी है, यह कोई काम नहीं कर पायेगा । मैं उन्ही कदमों लौट आयी । मैंने इनसे कहा, जी , इसे तो कुछ हो गया है । यह बोलता नहीं, मुझे तो डर लगता है । तुम बाहर से खाना मँगवा लो और इसे आज के दिन छुट्टी दे दो ।
          मैंने कहा तो ये खुद उठकर रसोईघर की तरफ चले गये । और बजाय उसे छुट्टी देने के, उसे फटकारने लगे । मैं थर-थर काँपने लगी । क्या मालूम, जग्गे ने कोई छुरा नेफे में छुपा रखा हो । इन लोगों का क्या भरोसा ? ‘बदजात बोलता क्यों नहीं ?’
ये ऐसे चिल्लाए, जैसा मैंने कभी इन्हे चिल्लाते नहीं सुना । मेरा तो ऊपर का सांस ऊपर और नीचे का नीचे । मैं करूँ तो क्या करूँ ? मैं भागकर इनके पास गई । मैंने सोचा, इन्हे खींचकर बाहर ले आऊँगी, परैन्होने मेरा हाथ झटक दिया । ‘कमीने’ मैं बार-बार पूँछ रहा हूँ, बता क्या बात है, और तू बोलता तक नहीं । तेरी जबान घिसती है, मुझे जवाब देन में ? निकल जा यहाँ से, अभी चला जा, मेरी आँखों से दूर हो जा ।’ और जग्गे को कान से पकड़कर रसोई से बाहर ले आए । मैं इन्हे समझाने लगी, कुछ न कहो जी, घण्टे-दो-घण्टे में मेहमान आने वाले हैं, और अभी तक कुछ नहीं बना । यह चला जाएगा, तो खाना कौन बनाएगा । जा जग्गा, जा, तू रसोईघर में जा । और मैं इन्हे जैसे-तैसे खींच लायी ।
       रात को जब मेहमान चले गये......हाँ जी, बनाया जग्गे ने, सारा खाना बनाया । बड़ा अच्छा खाना बनाया, पर रहा गुमसुम, मुँह से एक लफ़्ज नहीं बोला । खाना खाते-खाते इनका दिल भी पसीज गया । मेहमानों के सामने ही उससे कहने लगे – ‘जग्गे ! जा तेरी दस रुपये तरक्की ! रायसाहब कहते हैं, साग-मीट बहुत अच्छा बना है, शाबाश ! जा तेरा कसूर माफ किया ।’ ये देने पर आयें, तो मुँह माँगी मुराद पूरी करते हैं इनका दिल तो समन्दर है ।
        रातको मुझसे नहीं रहा गया । मैंने कहा, जी, विक्की बड़ा हो गया है, अब इसकी शादी की फिक्र करो । तो कहने लगे— ‘तुम्हे इसकी शादी की क्या पड़ी है, अभी इसकी उम्र ही क्या है, अभी तो इसके मुँह पर से दूध भी नहीं सूखा ।’ मैंने कहा, जी, शादी नहीं करोगे तो खूँटा तुड़ाये साँड़ की तरह जगह-जगह् मुँह मारेगा । मैंने गोल-मोल शब्दों में कहा । पर विक्की से उन्हे बहुत प्यार है, इसे अपने बच्चे की तरह इन्होने पाला है । उसकी बुराई ये नहीं सुन सकते । मैंने फिर से उसकी शादी की बात चलाई, तो कहने लगे— ‘मार ले जितना मुँह मारता है, अभी उसकी उम्र ही क्या है, दो दिन हँस खेल ले, ब्याह के बधन में तो एक दिन बँध ही जाएगा ।’
          मैंने कहा, जी, जवान लड़का है, गलत रास्ते पर भी पड़ सकता है । इसका तो जितना जल्दी हो ब्याह कर दो । इस पर कहने लगे— ‘अभी तो इसने पढ़ाई भी नहीं पूरी की । कुछ नहीं तो तीस-चालीस हजार इसकी पढ़ाई पर खर्च कर चुका हूँ । इसकी शादी करूँ, तो कम-से-कम यह रकम तो वसूल हो । और अभी इसने बी.ए. पास भी नहीं किया ।’
         मर्द लोग बड़े समझदार होते हैं, इन्हे तो दस बातों का ध्यान रहता है । अब मैं और आगे क्या कहती, मैने इतना भर कहा, आप इसके कान खींचते रहा कीजिये, जवानी बड़ी मस्तानी होती है । इस पर ये बिगड़ उठे— ‘तुम्हे कुछ मालूम है क्या ? बोलती क्यों नहीं हो ?’ ये इतनी रुखाई से बोले कि मैं चुप हो गयी । मैने सोचा, फिर कभी मौका मिलेगा, तो बात करूँगी, इन्हे आराम से समझाऊँगी, पर मुझे क्या मालूम था कि दूसरे ही दिन गुल खिलने वाला है ।
         दूसरे दिन सुबह, यही आठ-साढ़े आठ का वक्त होगा, मैं पिछले बरामदे में बैठी बाल सुखा रही थी । वहाँ धूप अच्छी पड़ती है । मैनें सोचा, बाल सूख जाएँ तो उन्हे काला करूँ । जग्गे की घरवाली बड़े सँवारकर मेरे बाल बनाती थी । मैनें सोचा, बाल सूख जाएँ तो उसे बुला लूँगी। यही साढ़े-आठ आठ का वक्त होगा । उसी वक्त फ्रंटियर मेल आती है । घर के पिछवाड़े थोड़ी दूर [अर ही तो रेलवे लाइन है । अगर गाड़ियों को सिगनल नहीं मिले, तो यहीं रुक जाती हैं, फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं । पर फ्रंटियर मेल यहाँ नहीं रुकती । वही एक गाड़ी है जो यहाँ नहीं खड़ी होती ।
         जग्गे ने पहले से ही सब कुछ सोच रखा होगा । उधर से गाड़ी आई तो जग्गा अपनी कोठरी में से बाहर निकला । मैंने कहा, जग्गे, सुरस्तां को मेरे पास भेज दे । पर मुझे लगा, जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं । वह भागकर पिछवाड़े की दीवार फाँद गया और रेलवे लाइन की ढलान चढ़ने लगा । यह सब पलक मारते हो गया । उसने मुड़कर पीछे देखा ही नहीं, मेरी भी अक्कल मारी गयी, मुझे सूझा ही नहीं कि वह क्यों भागा जा रहा है । मैंने सोचा, किसी काम से जा रहा होगा । गाड़ी का तो मुझे खयाल ही नहीं आया । वरना मैं उसे रोक नहीं देती ? ढलान चढ़ने के बाद मैंने नहीं देखा कि वह कहाँ गया है, किस तरह गया !
         झूठ क्यों बोलूँ, शाम का वक्त है । बस, फिर मुझे नजर नहीं आया । मुझे तो खटका तब भी नहीं हुआ, जब गाड़ी धम-धम करती आई और कुछ ही देर बाद पहिये घसीटती रुक गई । पहिये घिसटने की आवाज आती है ना, जैसे किसी ने चेन खींची हो। पर मैंने खयाल नहीं किया, यहाँ रोज गाड़ियाँ रुकती हैं । मैंने सोचा, किसी ने चेन खींची होगी । थोड़ी देर में माली भागा-भागा आया । कहने लगा, कोई हादसा हो गया है, और वह भी पिछवाड़े की दीवार फाँदकर ढलान चढ़ने लगा । मुझे फिर भी शक नहीं हुआ । थोड़ी देर बाद पड़ोस वाले नौकरने चिल्लाकर कहा— ‘जग्गा मारा गया है । जग्गा गाड़ी के नीचे कुचला गया है ।’
       मेरा दिल बुरी तरह से धक्-धक् करने लगा । उसके साथ उंस थी ना । वह तो जैसे घर का आदमी था, कोई पराया थोड़े ही था ये तो उसके साथ बेटे जैसा सुलूक करते थे । वह भी इन्हे बाप की तरह मानता था । यही चीज उसे अंदर ही अंदर खा गई । मैं तो अब भी कहती हूँ, अगर जग्गा बोल पड़ता, तो बच जाता । ये जरूर कोई-न-कोई रास्ता ढूंढ निकालते । ये सब तरकीबें जानते हैं । बड़े समझदार हैं । पर वह बोला ही नहीं ।
     वह दिन तो ऐसा बुरा बीता, ऐसा बुरा कि तुम्हे क्या बताऊँ । बार-बार टेलीफोन आए, तीन बार तो पुलिस का इंसपेक्टर आया । बार-बार इन्हे बुलाता, बार–बार कोठरी में झाँककर देखता । अंदर बैठी थी वह कुलच्छणी ! मौका देखने के बहाने इंसपेक्टर बार-बार अंदर जाए । मर्द तो भेड़िए की तरह औरत को घूरते हैं ना । और वह अंदर बेहोश पड़ी थी । उसे बार-बर गश आ रहे थे । अब मैं किस काम की ! मुझसे अपने जान नहीं सँभाली जाती । एक दो बार मन में आया भी कि जाऊँ, सुरस्तां को देख आऊँ । पर इन्होने मना कर दिया  ये कहने लगे, फौजदारी का मामला है, इससे दूर ही रहो । जब तक पुलिस अपनी कार्रवही न कर ले, कोठरी में कदम नहीं रखना । मर्द समझदार होते हैं ना, उन्होने दुनिया दुनिया देखे होती है । पुलिस ने इनसे पूँछा, तो इन्होने कहा, वह पिछले दिन से ही पगलाया-पगलाया लग रह था । मियाँ-बीवे की आपस में कोई बत हुई हो तो हम नहीं जानते । नौकरों की अंदर की बातों से मालिकों का क्या काम ? एक बारा अंदर आए, तो मैनें इनसे कहा, जी, तुम विकी को कहीं बाह्र भेज दो । मैं कहूँ, इन्हे मालूम नहीं, पर आसपास के किसी आदमी को मालूम हुआ तो बखेड़ा खड़ा हो जाएगा । पर इन्होने समझदारी की । विक्की को बाहर नहीं भेजा । मर्द लोग समझदार होते हैं, विक्की लापता हो जाता, तो पुलिस को शक पड़ सकता था, ना ।
          एक मठरी और लो ! लो ना ! तुमने तो कुछ खाया ही नहीं । खाओगी तो सेहत बनी रहेगी, बस मुटियाना नहीं । मेरी तरह मोटी नहीं होना, मोटी देह किस काम की । तुम आ गई, तो घण्टा-आध-घण्टा मन बहल गया । कभी-कभी आ जाया करो ना। तुम दूर तो नहीं रहती हो । कहो तो मोटर भेज दिया करूँ ? अकेले में तो घर भाँय-भाँय करता है । ये तो दफ्तर से आते हैं तो सीधे ब्रिज खेलने चले जाते हैं । जब तक तीन-चार घण्टे ब्रिज न खेल लें, इन्हे चैन नहीं मिलता । यह ताश तो मेरी ऐसी शौकन आई है, इस घर में जब से ब्याही आई हूँ, यह मेरा पीछा नहीं छोड़ती । रोज शाम को इन्हे उड़ा ले जाती है । हाय, अब तो हँस भी नहीं सकती । हँसती हूँ, तो साँस फूलने लगता है । छाती में शाँ-शाँ होती है । मैं इनसे कहूँ, तुम ताश बहुत ना खेला करो जी । अपनी सेहत का भी कुछ खयाल किया करो । जानती हो, क्या कहते है ? कहने लगे, इसी ताश के ही तुफैल ही तो मेरे दस काम सँवरते हैं । पुलिस का बड़ा अफसर ताश का साथी था, तभी जग्गे वाला मामला रफा-दफा हो गया, वरना घर में से कोई खुदकुशी करे, तो पुलिस वाले क्या घरवाले को नहीं परेशान करेंगे ? मैंने कहा, ठीक है, मर्द लोग जानें, हम क्या जानें । बस वही दिन हमारा बुरा गुजरा । इनको दिन के वक्त सोने की आदत है, थोड़ा सो न लें, तो बदन भारी-भारी महसूस करने लगता है, पर कोई सोने दे तो ! उस दिन वह भी नहीं हुआ । सोने के लिए लेटे, तो कभी टेलीफोन की घण्टी बजने लगे, कभी कोई सरकारी आदमी आ जाए । पर दूसरे दिन से चैन हो गया । फिर कोई नहीं आया ।
          जब मामला रफा-दफा हो गया, एक दिन मैनें विक्की की सारी करतूत इन्हे बता दी । ये कहने लगे— मुझे तो पहले दिन से मालूम था । मैं हक्की-बक्की इनके मुँह की ओर देखने लगी । जवानी में सभी बेवकूफियाँ करते हैं, इसने कर ली तो क्या हुआ । मैनें कहा— जी, विक्की को समझा तो दिया होता । कहने लगे, कोई बेसवा के पास तो नहीं गया, कोई बीमारी तो नहीं ले आया, हो गयी बात जो होनी थी, आगे के लिए इसे खुद कान हो जाएँगे । मैनें कहा, जी, पर बात तो अच्छी नहीं ना, ऐसा विक्की को करना तो नहीं चाहिए था ना । विक्की ने ऐसा नहीं किया होत तो जग्गा जान पर तो नहीं खेल जाता ना । तो कहने लगे, तुम क्या चाहती हो, भाई को पुलिस में दे देता ? पर जी, उसने तो जुर्म बहुत बड़ा किया है ना । ये और भी बिगड़ उठे । उसका जुर्म देखता या उसकी जान बचाता ? तुम क्या चाहती हो, उसे काल कोठरी में भिजवा देता ?
         फिर थोड़ी देर बाद धीमे से बोले । मुझे समझाने लगे, अव्वल तो कौन जाने विक्की अपने-आप अंदर गया था, या जग्गे की घरवाली उसे इशारे करती रहती थी । ताली एक हाथ से तो नहीं बजती । औरत बढ़ावा देती है, तभी मर्द बहकता है । लड़की इशारा भी कर दे तो आदमी बौरा जाता है, कोठरी के बाहर पर्दा लगा रहता है । क्या मालूम पर्दे की ओट में उसे इशारे करती रही हो । औरत खुद न चाहती, तो क्या मजाल था कि विक्की उसके कमरे में जाता । ऐसे ही कोई किसी के कमरे में घुस जाता है ? इतनी ही शरीफजादी थी तो अंदर से कमरा बंद करके क्यों नहीं बैठती थी ? अंदर से साँकल लगाकर बैठती । तेरा मर्द बाहर काम पर गया है, तू कोठरी में अकेली है, तू अंदर से कोठर बंद करके बैठ । दरवाजा खोलकर बैठने का तेरा क्या मतलब है ? दिन के वक्त तेरे पास आ सकती थी । उसे किसी ने मना किया था ?
            मैं सुनती रही, मैं भी सोचूँ, किसी के दिल की कौन जानता है, लड़की के दिल में चोर था, या विक्की के दिल में, भगवान् जाने ।
          आखिर में जी, इन्होने सारा मामला सँभाल लिया, इनसे सब संतुष्ट हो गये । इन्हे भगवान ने ऐसी समझदारी दी है, इनकी कोई कसम तक नहीं खाता । सभी इनके सामने हाथ जोड़ते हैं । ये जल्दी घबरा नहीं जाते ना, यही इनकी सबसे बड़ी खूबी है । कोई दूसरा होता तो घबरा जाता । जग्गे का भाई गाँव से आया, बहुत रोया-धोया, उसे इन्होने दो सौ रुपये निकाल कर दे दिए । जग्गे की घरवाली का बाप आया । उसे भी इन्होने पैसे दिए । मैनें इनसे कहा, जी, मामला रफा-दफा हो गया है, अब ये हमारे क्या लगते हैं, तुम पैसे लुटा रहे हो । पर नहीं, ये कहने लगे, जग्गे ने दस साल हमारी सेवा की है । इसे हम कैसे भूल सकते हैं । कहने लगे, सौ-पचास दे दो, तो गरीब का मुँह बंद हो जाता है । ये सबका भला सोचते हैं, किसी का बुरा नहीं सोचते । हर किसी की मदद ही करेंगे ।




  यह जरा घण्टी तो बजाना । मुए जानते भी हैं, रात पड़ गयी है, मगर मजाल है जो अपने-आप बत्ती जलाएँ । बार-बार घण्टी बजानी पड़ती है । कानों में तेल डाले पड़े रहते हैं। अब आई हो तो खाना खाकर जाना । ये जाने कब लौटेंगे । कभी दस बजे आते हैं, कभी खाना खाकर आते हैं । मैं दिनभर बैठे कौए उड़ाती रहती हूँ अब खाना खाये बि   
ना तो मैं तुम्हे जाने नहीं दूँगी । तुम आ गई, तो घड़ी भर दिल बहल गया । हमने अपनी बातें तो अभी तक की ही नहीं, दोनों बैठी बातें करेंगी । तुमने साग-मीट का पूँछा तो मुए जग्गे की बात चल पड़ी । मैं तुम्हे खाना खाये बिना नहीं जाने दूँगी..............

02 December, 2010

Harishankara Parasaai's Essay

मनुष्य का गोश्त बच्चे भी क्यों न चखें
हरिशंकर परसाई
       जो शासक जितना अधिक भ्रष्टाचारी हो, उसे प्रजा को सदाचारी बनाने का उसी अनुपात में प्रयत्न करना चाहिए। यह निर्देश चाणक्य का नहीं है  पर हमारे जमाने में अगर चाणक्य का अवतार होता, तो दूसरा चाणक्य यही नीति-निर्देश शासकों को देता। वर्तमान शासक यही नीति अपना रहे हैं। बिहार के मुख्यमन्त्री जगन्नाथ मिश्र हैं। कोई भी हिन्दी या अंग्रेजी का साप्ताहिक पत्र उठाता हूँ, तो उसमें ४-५ पृष्ठ जगन्नाथ मिश्र की भ्रष्टाचार-कथा के होते हैं। दैनिक अखबारों में तो रोज ही यह पुण्यकथा टुकड़े-टुकड़े में आती है। रामायण में तो ७ काण्ड हैं, मुख्यमन्त्रियों के सौ-सौ काण्डों के महकाव्य बन चुके हैं। मैं अब साप्ताहिक पत्र खोलते डरता हूँ। पत्र के कवर पर अगर जगन्नाथ मिश्र का चित्र हो, तो इस डर से कि भीतर ‘स्टोरी’ होगी, मैं उस पत्र को पढ़ता ही नहीं। इनका यशोगान पढ़ते-पढ़ते लोग तंग आ चुके हैं।
       मगर मिश्रजी की आध्यात्मिक उदात्त भावना को देखिये कि वे बिहार के युवक छात्रों को सदाचारी बनाना चाहते हैं। यह सारे देश में विश्वविद्यालयों में परीक्षा का मौसम है। बिहार में ‘लार्ज स्केल’ (बड़े पैमाने) पर परीक्षाओं में नकल हो रही है। दूसरे भ्रष्ट साधन अपनाये जा रहे हैं, जैसे पेपर आउट करना। जगन्नाथ ने नकल तथा भ्रष्ट तरीके रोकने के लिए कठोर कार्यवाही करने के आदेश दिये हैं। महाराष्ट में पहले अध्यादेश था, जो अब कानून बन गया है। इसके मुताबित नकल करने वाले छात्र को जेल की सजा और जुर्माना होगा। पेपर आउट करने-कराने पर भी जेल होगी। पेपर आउट कराने के लिए पिता या अभिभावक, जो भी पैसे देगा,उसे भी सजा होगी।
       यह मौसम परीक्षा का ऐसा है कि अध्यापकगण खतरे में रहते हैं।अध्यापक उदास है और भयभीत स्वर में कहता है— कल से ‘इनविजिलेशन’ की ड्यूटी लग गयी है। यानि अदालत में फाँसी की सजा हो गयी है, बस टँगने की देर है। नकल पकड़ने गये, तो सिर फूटता है या छुरा घुसता है, कुछ ठिकाना नहीं। विश्वविद्यालय अध्यापकों के उड़नदस्ते परीक्षा-केन्द्रों पर भेजते हैं, तो उन पर पत्थर बरसते हैं। मेरी जानकारी में एक महाविद्यालय में तो उड़नदस्ते पर पत्थर फ़ेंकने का नेतृत्व खुद प्रिंसिपल कर रहे थे। वहाँ सामूहिक नकल हो रही थी। एक लॉ कॉलेज में सामूहिक नकल की परम्परा ही पड़ गयी थी। वहाँ की कापियाँ जाँचने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के अश्यापक के पास गयीं, तो बेचारे ने वो कापियाँ वापस कर दीं, इस नोट के साथ कि मुझमें इन कापियों को जाँचने की योग्यता नहीं है। ये छात्र नहीं हैं वरन् कानून की ‘अथॉरिटी’ (अधिकारी विशेषज्ञ) हैं।
      इनके बराबर ज्ञान तो मुझमें भी नहीं है। दादा लोग हैं। छुरा खुला हुआ डेस्क पर रखकर किताब से नकल करते हैं। एक-दो को जानता हूँ, जिन्होने डेस्क पर छुरा रख-रखकर एम.ए. और एल-एल.बी. कर लिया और छुरा दिखा-दिखाकर प्रोफ़ेसर से थीसिस लिखवाकर पी-एच.डी. भी कर ली। दादा लोग अध्यापकों की ड्यूटी लगा देते हैं।परीक्षा-केन्द्र के पास मकान में हा जरूरी विषय के अध्यापक पुस्तकें लिये बैठे रहते हैं। पेपर आता है और वे एक-एक प्रश्न के उत्तर साइक्लोस्टाइल कराके परीक्षा-भवन में भेजते जाते हैं एक कॉलेज की प्रबन्ध समिति का सदस्य था। परीक्षा के वक्त यों ही पहुँचा, तो धूप में २५-३० युवक खड़े हैं, जो भीतर अपने-अपने चेलों को प्रश्नों के उत्तर भेज रहे हैं। मैनें प्रिंसिपल से कहा— जब इस नैतिकता को स्वीकार ही कर लिया गया है, तो इन लोगों को तकलीफ क्यों हो, इनके लिए शामियाना लगवा दो और ठण्डे पानी के घड़े रखवा दो।
      और भी उज्ज्वल बात यह है कि कुछ अध्यापक खुद नकल करवाते हैं। ज्यों ही जासूस ने खबर दी कि उड़नदस्ता आ रहा है, सारी किताबें बाथरूम में छिपा दीं। खतरा टल गया, तो फिर किताबें निकाल लीं।
      उन्नीस-बीस नहीं, तो पन्द्रह-बीस का फ़र्क पड़ सकता है। पर होंगे वही मूल्य। शिक्षण-केन्द्रों में कम भ्रष्टाचार नहीं है। गुरुकुलों, ऋषि-मुनियों, शिक्षा की पवित्रता, आदर्श आदि की बात करना पाखण्ड है। जो यथार्थ है, वह यह कि शिक्षा के क्षेत्र में पढ़ने और पढ़ाने वाले आमतौर पर भ्रष्ट हैं। अपवाद जरूर है, अनुपात भी कम है। पर वस्तुस्थिति यही है, इसे लोग जानते हैं।
      पर भ्रष्ट शासक, भ्रष्ट समाजनेता, भ्रष्ट उपदेशक, भ्रष्ट तथाकथित देश-सेवक छात्रों को सदाचारी बनाना चाहते हैं, तो अच्छी बात है। महान चीनी लेखक लूशुन की बहुत मशहूर कहानी है— ‘एक पागल की डायरी।’ इसमें अन्त में वह ‘पागल’ लिखता है— ‘हम चार हजार सालों से मनुष्य का गोश्त ख़ा रहे हैं। बच्चों ने इसे नहीं चखा है। इन बच्चों को बचाओ।’
     हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति वाली जाति भी पाँच हजार सालों से मनुष्य का मांस खा रही हैं, सिर्फ़ मनु महराज के नियम को देख लीजिए— जैसे शूद्र यदि द्विज का नाम भी घृणा से ले ले, तो उसके मुँह में लोहे की गरम छड़ ठूँस दी जाय। यदि शूद्र; राजा या ब्राह्मण को उसका कर्तव्य बताने की धृष्टता करे, तो उसके मुँह और कान में गरम तेल डाल दिया जाय, मगर यदि ब्राह्मण शूद्र को मार डाले, तो उसे उतना ही प्रायश्चित्त करना पर्याप्त होगा, जितना सुअर और कुत्ते को मारने के लिए।
      हैं न हम लोग मनुष्यभक्षी सदियों से? और हम मनुष्य खानेवालों ने असम के छात्रों को, जिन्होने नरमांस का स्वाद नहीं लिया था, नरमांस खाना सिखा दिया है। अच्छा है कि दूसरी जगह के छात्रों को हम नरभक्षी बनाने से बचाना चाहते हैं।
        इन कड़े कानूनों से नकल रुकेगी, यह कुछ निश्चित नहीं। कौन नकल पकड़ेगा? कौन झंझट लेगा? कौन खतरा उठायेगा। पुलिस क्या एक बला और मोल लेगी? जिन पर १०-१० गिरफ़्तारी के वारण्ट हैं, ऐसे छात्र-नेता तो पुलिस के साथ दारू पीते हैं। नेता को गिरफ़्तार करके छात्र-हुल्लड़ की मुसीबत पुलिस क्यों बुलाये? डर से डरपोक लड़के नकल न करें, इतना हो सकता है।
       साधारण गरीब और निम्न-मध्यवर्ग के लड़के पढ़ना चाहते हैं, ईमानदारी से परीक्षा भी देना चाहते हैं। वे जल्दी डिग्री लेकर नौकरी करना चाहते हैं, जिससे परिवार की गर्दिश कम कर सकें।
       माँ-बाप अपना पेट काटकर उनके लिए फीस और पुस्तकों का इन्तजाम करते हैं। छोटे भाई-बहन फटे कपड़े पहनते हैं— बड़े भैया की पढ़ाई और नौकरी के लिए। ऐसे लड़के सौ में नब्बे होते हैं। मगर इनके दुश्मन होते हैं, बिना उद्देश्य,बिना ध्येय के हुल्लड़बाज छात्र-नेता, जो दस-पन्द्रह साल विश्वविद्यालयों और कॉलेज में आतंक पैदा कर हरामखोरी कर जिन्दा रहते हैं। ये सम्पन्न घरों के या सामन्ती अपराधी पारिवारिक संस्कार के, या जीवन में अपराध को ही धन्धा बनाने वाले होते हैं नकल यही करते और करवाते हैं।
       इनकी दुर्गति भी होती है क्षणिक, जब किसी कठोर पुलिस वाले से पाला पड़ जाता है। इधर एक विश्वविद्यालय के २-३ कॉलेजों में पुलिस की निगरानी में परीक्षा होती है। पुलिस थानेदार इन रंगदारों से कह देता है— सालो, खिड़की से बाहर झाँका कि कनपटी फट जायेगी। परीक्षा हॉल से किसी बहाने ऊधम करके बाहर निकले तो इतने डण्डे पड़ेंगे कि दोनों टाँगें टूट जायँगी। तो परीक्षा शान्ति से हो जाती है। बस पेपर निकालने का काम कन्स्टेबलों को और जाँचने का काम हवलदारों को दे दिया जाय, तो शिक्षा-व्यवस्था ठीक हो जायगी।
       आम अच्छे लड़के भी नकल क्यों करते हैं? एक इस कारण कि बहुत अध्यापक पढ़ाते नहीं हैं। क्लास हे नहीं लेते। इन अध्यापकों के लिए भी दण्ड की व्यवस्था की जाय। फिर भला लड़का भी सोचता है कि दूसरे कई नकल कर हैं, उनका ऊँचा स्थान हो जायेगा और क्लास नहीं पाऊँगा। तीसरा कारण है नकल सर्वव्यापी वातावरण। उसे बुरा नहीं माना जाना।
       मूल है— बेकारी की समस्या! सारी बुराइयों की जड़ है बेकारी की सम्भावना। अगर शिक्षा की निश्चित योजना और उद्देश्य हो, अगर डिग्री मिलते ही युवक को नौकरी मिलना तय हो, तो लड़के मन लगाकर पढ़ेंगे और ईमानदारी से परीक्षा देंगे। अभी बहाने बनाकर परीक्षायें टलवाते हैं। पास होने पर नौकरी पक्की हो तो वे हाथ जोड़कर कहेंगे—सर, दो महीने पहले ही परीक्षा ले लीजिये, ताकि हम जल्दी नौकरी पर चलें। बिना बेकारी खत्म किये ये कोई समस्याएँ हल नहीं होंगी।
       सरकारों ने छात्रों के लिए तो दण्ड विधान कर दिया। मगर गुरुओं के लिए? किसी चाणक्य या मनु से गुरु के लिए भी दण्ड-विधान बनवा लेते। जो मोटा वेतन लेते हैं, पर पढ़ाते नहीं। जो पक्षपात करते हैं, जो धनियों से पैसा लेकर पहला दर्ज़ा देते हैं, जो गुरुपत्नी के लिए सोने की चेन लेकर डॉक्टरेट देते हैं, जो गरीब आदिवासी छात्रों को ८-८ महीने स्कॉलरशिप नहीं लेने देकर भूखा मारते हैं जो शोधछात्रों की फेलोशिप आधी खुद खा जाते हैं, जो  द्वेष के मारे मेधावी तरुणों की जिन्दगी बरबाद करते हैं। इनकी भी नाक-कान काटने, आँख फोड़ने जीभ काटने का दण्ड-विधान होना चाहिए। बहरहाल, हम तो पाँच हजार सालों से मनुष्य का मांस खा रहे हैं। जिन्होने उसे नहीं चखा है, उन्हे बचाने की कोशिश करें। मेरा एक ही प्रश्न है— जब सत्ताधारी और नेता तथा बड़े लोग जानते हैं, मानते हैं और जिनके पास जीवन से प्रमाणित यह सत्य है कि दुराचरण से ही सुख सफलता और सम्पत्ति मिलते हैं तो सदाचार सिखाकर इन छात्रों की जिन्दगी क्यों बरबाद करने पर तुले हैं?









21 November, 2010

Raghuvansha Mahakavyam 5th Chapter





   तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं नि:शेषविश्राणितकोषजातं । उपात्तविद्यो गुरुदक्षिणार्थी कौत्स: प्रपेदे वरतन्तुशिष्य: ॥१॥ स मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात्पात्रे निधायार्घ्यमनर्घशील: । श्रुतप्रकाशं यशसा प्रकाश: प्रत्युज्जगामातिथिमातिथेय: ॥२॥ तमर्चयित्वा विधिवद्विधिज्ञस्तपोधनं मानधनाग्रयायी । विशाम्पतिर्विष्टरभाजमारात्कृताञ्जलि: कृत्यविदित्युवाच ॥३॥ अप्यग्रणीर्मन्त्रकॄतामृषीणां कुशाग्रबुद्धे! कुशली गुरुस्ते । यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं लोकेन चैतन्यमिवोश्णरश्मे: ॥४॥  कायेन वाचा मनसाऽपि  शश्वद्यत्सम्भृतं वासवधैर्यलोपि  । आपाद्यते न  व्ययमन्तरायै:         कच्चिन्महर्षेस्त्रिविधं तपस्तत् ॥५॥ आधारबन्धप्रमुखै:  प्रयत्नै:     संवर्धितानां   सुतनिर्विशेषम्  । कच्चिन्न  वाय्वादिरुपप्लवो व:        श्रमच्छिदामाश्रमपादपानाम्॥६॥       क्रियानिमित्तेष्वपि वत्सलत्वादभग्नकामा  मुनिभि: कुशेषु  ।  तदङ्कशय्याच्युतनाभिनाला   कच्चिन्मृगीणामनघा प्रसूति:  ॥७॥ निर्वर्त्यते यैर्नियमाभिषेको येभ्यो निवापाञ्जलय: पितृणाम् । तान्युञ्छषष्ठाङ्कितसैकतानि शिवानि वस्तीर्थजलानि कच्चित् ॥८॥ नीवारपाकादि  कडङ्गरीयैरामॄश्यते  जानपदैर्न  कच्चित्  ।  कालोपपन्नातिथिकल्प्यभागं  वन्यं शरीरस्थितिसाधनं व: ॥९॥ अपि प्रसन्नेन  महर्षिणा  त्वं  सम्यग्विनीयानुमतो गृहाय । कालो ह्ययं  सङ्क्रमितुं द्वितीयं  सर्वोपकारक्षममाश्रमं ते ॥१०॥ तवार्हतो नाभिगमेन तृप्तं मनो नियोगक्रिययोत्सुकं मे । अप्याज्ञया शासितुरात्मना वा प्राप्तोऽसि सम्भावयितुं वनान्माम् ॥११॥ इत्यर्घपात्रानुमितव्ययस्य   रघोरुदारामपि  गां  निशम्य । स्वार्थोपपत्तिं  प्रति  दुर्बलाशस्तमित्यवोचद्वरतन्तुशिष्य:    ॥१२॥ सर्वत्र नो वार्तमवेहि राजन्नाथे  कुतस्त्वय्यशुभं प्रजानाम् । सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टे:  कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्ना ॥१३॥ भक्ति: प्रतीक्ष्येषु कुलोचिता ते पूर्वान्महाभाग ! तयाऽतिशेषे । व्यतीतकालस्त्वहमभ्युपेतस्त्वामर्थिभावादिति मे  विषाद: ॥१४॥  शरीरमात्रेण नरेन्द्र !  तिष्ठन्नाभासि  तीर्थप्रतिपादितर्द्धि: । आरण्यकोपात्तफलप्रसूति:    स्तम्बेन  नीवार   इवावशिष्ट:         ॥१५॥ स्थाने भवानेकनराधिप:   सन्नकिञ्चनत्वं मखजं व्यनक्ति । पर्यायपीतस्य  सुरैर्हिमांशो:  कलाक्षय:  श्लाघ्यतरो  हि वॄद्धे:   ॥१६॥ तदन्यतस्तावदनन्यकार्यो गुर्वर्थमाहर्तुमहं  यतिष्ये  । स्वस्त्यस्तु  ते निर्गलिताम्बुगर्भं शरत् घनं नार्दति चातकोऽपि ॥१७॥ एतावदुक्त्वा प्रतियातुकामं  शिष्यं  महर्षेर्नॄपतिर्निषिध्य  । किं वस्तु विद्वन्! गुरवे प्रदेयं त्वया कियद्वेति तमन्वयुङ्क्त: ॥१८॥ ततो यथावद्विहिताध्वराय  तस्मै  स्मयावेशविवर्जिताय  । वर्णाश्रमाणां  गुरवे स वर्णी  विचक्षण:     प्रस्तुतमाचचक्षे  ॥१९॥ समाप्तविद्येन   मया   महर्षिर्विज्ञापितोऽभूद्गुरुदक्षिणायै   । स मे चिरायास्खलितोपचारां तां भक्तिमेवागणयत्पुरस्तात् ॥२०॥ निर्बन्धसञ्जातरुषाऽर्थकार्श्यमचिन्तयित्वा  गुरुणाऽहमुक्त:   । वित्तस्यविद्यापरिसङ्ख्यया मे  कोटिश्चतस्रो दश चाहरेति ॥२१॥ सोऽहं  सपर्याविधिभाजनेन मत्वा भवन्तं  प्रभुशब्दशेषम् । अभ्युत्सहे सम्प्रति  नोपरोद्धुमल्पेतरत्वाच्छ्रुतनिष्क्रयस्य ॥२२॥ इत्थं द्विजेन  द्विजराजकान्तिरावेदितो  वेदविदां  वरेण  । एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिरेनं   जगाद  भूयो  जगदेकनाथ:     ॥२३॥ गुर्वर्थमर्थी   श्रुतपारदृश्वा रघो:   सकाशादनवाप्य कामम्  । गतो  वदान्यान्तरमित्ययं  मे मा  भूत्परीवादनवावतार: ॥२४॥ स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाग्न्यगारे । द्वित्राण्यहान्यर्हसि  सोढुमर्हन् यावद्यते साधयितुं त्वदर्थम् ॥२५॥ तथेति तस्यावितथं प्रतीत:   प्रत्यग्रहीत्सङ्गरमग्रजन्मा  ।  गामात्तसारां  रघुरप्यवेक्ष्य  निष्क्रष्टुमर्थं चकमे  कुबेरात् ॥२६॥  वसिष्ठमन्त्रोक्षणजात्प्रभावादुदन्वदाकाशमहीधरेषु      ।  मरुत्सखस्येव बलाहकस्य गतिर्विजघ्ने न हि तद्रथस्य ॥२७॥ अथाधिशिश्ये प्रयत: प्रदोषे रथं रघु:   कल्पितशस्त्रगर्भम्  । सामन्तसम्भावनयैव  धीर:  कैलासनाथं  तरसा  जिगीषु: ॥२८॥ प्रात: प्रयाणाभिमुखाय तस्मै सविस्मया: कोषगृहे नियुक्ता: । हिरण्यमयीं कोषगृहस्य मध्ये वृष्टिं शशंसु: पतितां नभस्त: ॥२९॥ तं भूपतिर्भासुरहेमराशिं   लब्धं  कुबेरादभियास्यमानात् ।  दिदेश कौत्साय समस्तमेव पादं सुमेरोरिव वज्रभिन्नम् ॥३०॥ जनस्य  साकेतनिवासिनस्तौ  द्वावप्यभूतामभिनन्द्यसत्त्वौ  । गुरुप्रदेयाधिकनि:स्पृहोऽर्थी  नृपोऽर्थिकामादधिकप्रदश्च ॥३१॥ अथोष्ट्रवामीशतवाहितार्थं  प्रजेश्वरं  प्रीतमना  महर्षि:  ।  स्पृन्करेणानतपूर्वकायं  सम्प्रस्थितो  वाचमुवाच  कौत्स:     ॥३२॥ किमत्र चित्रं यदि कामसूर्भूवृत्ते स्थितस्याधिपते: प्रजानाम् । अचिन्तनीयस्तु तव प्रभावो मनीषितं द्यौरपि येन दुग्धा ॥३३॥ आशास्यमन्यत्पुनरुक्तभूतं  श्रेयांसि  सर्वाण्यधिजग्मुषस्ते  ।  पुत्रं  लभस्वात्मगुणानुरूपं  भवन्तमीड्यं भवत: पितेव ॥३४॥ इत्थं प्रयुज्याशिषमग्रजन्मा राज्ञे प्रतीयाय गुरो: सकाशम् । राजाऽपि लेभे सुतमाशु तस्मादालोक मर्कादिव जीवलोक: ॥३५॥ ब्राह्मो मुहूर्तो किल तस्य देवी कुमारकल्पं सुषुवे कुमारम् । अत: पिता ब्राह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार ॥३६॥ रूपं तदोजस्वि तदेव वीर्यं तदेव  नैसर्गिकमुन्नतत्वम् । न कारणात्स्वाद्विभिदे कुमार:  प्रवर्तितो दीप इव प्रदीपात् ॥३७॥ उपात्तविद्यं विधिवद्गुरुभ्यस्तं यौवनोद्भेदविशेषकान्तम् ।  श्री:   साभिलाषाऽपि गुरोरनुज्ञां धीरेव कन्या पितुराचकाङ्क्ष ॥३८॥       अथेश्वरेण  क्रथकैशिकानां  स्वयंवरार्थं स्वसुरिन्दुमत्या:  ।  आप्त:      कुमारानयनोत्सुकेन  भोजेन दूतो रघवे विसृष्ट: ॥३९॥ तं श्लाघ्यसम्बन्धमसौ विचिन्त्य दारक्रियायोग्यदशं च पुत्रम्। प्रस्थापयामास ससैन्यमेनमृद्धां विदर्भाधिपराजधानीम् ॥४०॥ तस्योपकार्यारचितोपचारा  वन्येतरा  जानपदोपदाभि: ।  मार्गे   निवासा    मनुजेन्द्रसूनोर्बभूवुरुद्यानविहारकल्पा: ॥४१॥ स नर्मदारोधसि  सीकरार्द्रैर्मरुद्भिरानर्तितनक्तमाले  । निवेशयामास विलङ्घिताध्वा क्लान्तं रजोधूसरकेतु सैन्यम् ॥४२॥ अथोपरिष्टाद्भ्रमरैर्भ्रमद्भि:    प्राक्सूचितान्त:सलिलप्रवेश:   ।  निर्धौतदानामलगण्डभित्तिर्वन्य:   सरित्तो गज उन्ममज्ज ॥४३॥ नि:शेषविक्षालितधातुनाऽपि   वप्रक्रियामृक्षवतस्तटेषु  ।   नीलोर्ध्वरेखाशबलेन  शंसन्दन्तद्वयेनाश्मविकुणठितेन ॥४४॥ संहारविक्षेपलघुक्रियेण  हस्तेन तीराभिमुख:  सशब्दम्  । बभौ स भिन्दन्बृहतस्तरङ्गान्वार्यर्गलाभङ्ग इव प्रमत्त: ॥४५॥  शैलोपम:   शैवलमञ्जरीणां जालानि कर्षन्नुरसा स पश्चात् । पूर्वं  तदुत्पीडितवारिराशि:  सरित्प्रवाहस्तटमुत्ससर्प ॥४६॥ तस्यैकनागस्य  कपोलभित्त्योर्जलावगाहक्षणमात्रशान्ता  । वन्येतरानेकपदर्शनेन   पुनर्दिदीपे   मददुर्दिनश्री:        ॥४७॥  सप्तच्छदक्षीरकटुप्रवाहमसह्यमाघ्राय  मदं  तदीयम्  । विलङ्घिताधोरणतीव्रयत्ना:    सेनागजेन्द्रा  विमुखा  बभूवु:  ॥४८॥ स  च्छिन्नबन्धद्रुतयुग्यशून्यं   भग्नाक्षपर्यस्तरथं  क्षणेन । रामापरित्राणविहस्तयोधं सेनानिवेशं तुमुलं चकार ॥४९॥ तमापतन्तं नृपतेरवध्यो वन्य: करीति श्रुतवान्कुमार: । निवर्तयिष्यन्विशिखेन कुम्भे जघान नात्यायतकष्टशार्ङ्ग: ॥५०॥ स विद्धमात्र:  किल नागरूपमुत्सृज्य तद्विस्मितसैन्यदृष्ट: ।  स्फुरत्प्रभामण्डलमध्यवर्ति कान्तं वपुर्व्योमचरं प्रपेदे ॥५१॥  अथ प्रभावोपनतै:  कुमारं कल्पद्रुमोत्थैरवकीर्य पुष्पै:   । उवाच  वाग्मी  दशनप्रभाभि:   संवर्धितोर:स्थलतारहार:      ॥५२॥  मतङ्गशापादवलेपमूलादवाप्तवानस्मि मतङ्गजत्वम्     ।  अवेहि   गन्धर्वपतेस्तनूजं  प्रियंवदं  मां   प्रियदर्शनस्य ॥५३॥ स  चानुनीत:  प्रणतेन  पश्चान्मया  महर्षिर्मृदुतामगच्छत्  । उष्णत्वमग्न्यातपसम्प्रयोगाच्छैत्यं हि यत्सा प्रकृतिर्जलस्य ॥५४॥ इक्ष्वाकुवंशप्रभवो यदा  ते  भेत्स्यत्यज: कुम्भमयोमुखेन  ।  संयोक्ष्यसे स्वेन वपुर्महिम्ना तदेत्यवोचत्स तपोनिधिर्माम् ॥५५॥ स्म्मोचित:    सत्त्ववता त्वयाऽहं  शापाच्चिरप्रार्थितदर्शनेन  । प्रतिप्रियं चेद्भवतो न कुर्यां वॄथा हि मे स्यात्स्वपदोपलब्धि: ॥५६॥ सम्मोहनं नाम सखे !  ममास्त्रं  प्रयोगसंहारविभक्तमन्त्रम्  । गान्धर्वमादत्स्व  यत:  प्रयोक्तुर्न चारिहिंसा  विजयश्च हस्ते ॥५७॥ अलं ह्रिया मां प्रति यन्मुहूर्तं दयापरोऽभू: प्रहरन्नपि त्वम् । तस्मादुपच्छन्दयति प्रयोज्यं मयि त्वया न प्रतिषेधरौक्ष्यम् ॥५८॥ तथेत्युपस्पृश्य पय:   पवित्रं  सोमोद्भाया:  सरितो  नृसोम:    । उदङ्मुख:   सोऽस्त्रविदस्त्रमन्त्रं  जग्राह तस्मान्निगृहीतशापात्  ॥५९॥ एवं तयोरध्वनि दैवयोगादासेदुषो: सख्यमचिन्त्यहेतु । एको ययौ चैत्ररथप्रदेशान् सौराज्यरम्यानपरो विदर्भान् ॥६०॥ तं  तस्थिवांसं नगरोपकण्ठे  तदागमारूढगुरुप्रहर्ष:  । प्रयुज्जगाम  क्रथकैशिकेन्द्रश्चन्द्र:  प्रवृद्धोर्मिरिवोर्मिमाली ॥६१॥ प्रवेश्य  चैनं पुरमग्रयायी नीचैस्तथोपाचरदर्पितश्री:  ।  मेने यथा तत्र जन: समेतो  वैदर्भमागन्तुमजं गॄहेशम् ॥६२॥ तस्याधिकारपुरुषै:    प्रणतै:   प्रदिष्टां  प्राग्द्वारवेदिविनिवेशितपूर्णकुम्भाम्  । रम्यां रघुप्रतिनिधि: स नवोपकार्यां बाल्यात्परामिव दशां मदनोऽध्युवास: ॥६३॥ तत्र  स्वयंवरसमाहॄतराजलोकं  कन्याललाम कमनीयमजस्य लिप्सो:     ।  भावावबोधकलुषा  दयितेव  रात्रौ निद्रा चिरेण  नयनाभिमुखी बभूव ॥६४॥ तं  कर्णभूषणनिपीडितपीवरांसं   शय्योत्तरच्छदविमर्दकृशाङ्गरागम्    ।  सूतात्मजा:   सवयस:   प्रथितप्रबोधं  प्राबोधयन्नुषसि  वाग्भिरुदारवाच: ॥६५॥ रात्रिर्गता मतिमतां वर ! मुञ्च शय्यां धात्रा द्विधैव ननु धूर्जगतो विभक्ता ।  तामेकतस्तव बिभर्ति  गुरुर्विनिद्रस्तस्या  भवानपरधुर्यपदावलम्बी ॥६६॥ निद्रावशेन भवताऽप्यनवेक्षमाणा पर्युत्सुकत्वमबला निशि खण्डितेव । लक्ष्मीर्विनोदयति येन दिगन्तलम्बी सोऽपि त्वदाननरुचिं विजहाति चन्द्र: ॥६७॥  तद्वल्गुना युगपदुन्मिषितेन तावत्सद्य:  परस्परतुलामधिरोहितां  द्वे   ।   प्रस्पन्दमानपरुषेतरतारमन्तश्चक्षुस्तव   प्रचलितभ्रमरं   च   पद्मम्  ॥६८॥ वृन्ताच्छ्लथं हरति पुष्पमनोकहानां संसृज्यते सरसिजैररुणांशुभिन्नै: । स्वाभाविकं  परगुणेन  विभातवायु:  सौरभ्यमीप्सुरिव  ते  मुखमारुतस्य ॥६९॥ ताम्रोदरेषु पतितं  तरुपल्लवेषु निर्धौतहारगुलिकाविशदं  हिमाम्भ:   । आभाति  लब्धपरभागतयाऽधरोष्ठे  लीलास्मितं सदशनार्चिरिव  त्वदीयम् ॥७०॥ यावत्प्रतापनिधिराक्रमते न भानुरह्नाय तावदरुणेन तमो निरस्तम्  । आयोधनाग्रसरतां त्वयि वीर !  याते किं वा रिपूँस्तव गुरु:  स्वयमुच्छिनत्ति ॥७१॥ शय्यां जहत्युभयपक्षविनीतनिद्रा:  स्तम्बेरमामुखरशृङ्खलकर्षिणस्ते । येषां   विभान्ति  तरुणारुणरागयोगाद्भिन्नाद्रिगैरिकतटा  इव  दन्तकोशा: ॥७२॥ दीर्घेष्वमी नियमिता: पटमण्डपेषु निद्रां विहाय वनजाक्ष ! वनायुदेश्या: । वक्त्रोष्मणा मलिनयन्ति पुरोगतानि लेह्यानि सैन्धवशिलाशकलानि वाहा: ॥७३॥ भवति विरलभक्तिर्म्लानपुष्पोपहार: स्वकिरणपरिवेषोद्भेदशून्या: प्रदीपा: । अयमपि च गिरं नस्त्वत्प्रबोधप्रयुक्तामनुवदति शुकस्ते मञ्जुवाक्पञ्जरस्थ: ॥७४॥ इति विरचितवाग्भिर्बन्दिपुत्रै:  कुमार: सपदि  विगतनिद्रस्तल्पमुज्झाञ्चकार । मदपटुनिनदद्भिर्बोधितो राजहंसै: सुरगज इव गाङ्गं सैकतं सुप्रतीक: ॥७५॥ अथ विधिमवसाय्य  शास्त्रदृष्टं  दिवसमुखोचितमञ्चिताक्षिपक्ष्मा ।  कुशलविरचितानुकूलवेष:                                 क्षितिपसमाजमगात्स्वयंवरस्थम्   ॥७६॥  

06 November, 2010

My Emotions on festival pollution

Last Friday , we have celebrated the festival Diwali very successfully. But it is very important to view that since ancient time we have always celebrated our all festivals with ecofriendly atmosphere. We have never forget our nature. But present time now we are forgetting our nature and culture.In this festival, we have lost very dangerous air-pollution in atmosphere. Though we are knowing that we all are suffering from global warming i.e. we become uncareful for our atmosphere and climate.
      So it is request to all that we should never forget our nature and its natural glamor. It is our duty that we spend some time in natural atmosphere and be careful for its safety .