Indian Intellectual Stage
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31 January, 2018
16 November, 2013
23 September, 2011
ABIDHAA IN SANSKRIT KAAVYAS
Indian Poetics & Aesthetics
Topic
काव्यों में वाच्यार्थ का स्थान
Author
Satrudra Prakash
Email: satrudra90@gmail.com
Special Centre for Sanskrit Studies
Jawaharlal Nehru University
New Delhi 110067
भूमिका
भारतीय काव्य के अपार एवं अखण्ड परम्परा में न केवल दृश्य एवं श्रव्य काव्यों का प्रणयन हुआ अपितु उनकी रचनाविधि, काव्यनिर्माण का प्रयोजन, काव्य के हेतु, लक्षण तथा शब्द के द्वारा किसी भाव को व्यक्त करने की प्रक्रिया का भी व्यापक सर्वेक्षण एवं विचार-विमर्श करके नियमों की सृष्टि की गयी । इन्ही सभी विमर्शों के परिणाम स्वरूप काव्य के साथ काव्यशास्र नामक एक ऐसी विधा का जन्म भारतीय मनीषा के प्रताप से हुआ जो के पाश्चात्य काव्य में दृष्टिगोचर नहीं होती । यही कारण है कि भारतीय (संस्कृत) काव्यपरम्परा में जितने कवि हुए हैं उसी अनुपात में काव्यशास्त्रीय आचार्यों का भी आविर्भाव एवं योगदान दिखाई देता है ।
संस्कृत काव्य का प्रारम्भ सभी विधाओं के मूल उत्स, ऋग्वेद की ऋचाओं से ही प्राप्त होने लगता है जहाँ यम-यमी, नल-दमयन्ती, पुरुरवा-उर्वशी इत्यादि अनेक आख्यान मिलते हैं जिनमें आधुनिक काव्य के बीज स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं । लौकिक काव्य का प्रारम्भ महर्षि वाल्मीकि प्रणीत रामायण से माना जाता है जहाँ से यह निरन्तर प्रगति करते हुए कालिदास, भारवि, भास, भवभूति,माघ, जैसे मूर्धन्य काव्यकर्ताओं से होते हुए आज सम्पूर्ण विश्व को अपने अलौकिक आनन्द से रससिक्त कर रहा है ।
काव्य के विभिन्न आयामों में से एक है वह शक्ति जिसके बल पर काव्य सौन्दर्य कवि के मानस पटल से उभरकर श्रोता अथवा दर्शक के हृदय में उसके उद्देश्य के हिसाब से रस को जागृत करके उसे आनन्दानुभूति कराता है । यह शक्ति शब्द और अर्थ के मध्य होती है । अतः इसे शब्दशक्ति कहते हैं । “इसका दूसरा नाम व्यापार भी है । शब्द में निहित अर्थ-संपत्ति को प्रकट करने वाला तत्त्व शब्दव्यापार या शब्दशक्ति है । शब्दशक्तियाँ साधन के रूप में समादृत हैं । शब्द कारण है और अर्थ कार्य और शब्दशक्तियाँ साधन या व्यापार-रूप हैं । शब्दशक्ति के बिना शब्द के अर्थ का ज्ञान संभव नहीं है । अतः, शब्द और अर्थ के संबंध में विचार करने वाले तत्त्व को शब्दशक्ति कहते हैं । शब्द की तीन शक्तियाँ हैं । अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना । एक अन्य शक्ति तात्पर्य भी है जो शब्द का व्यापार न होकर वाक्य का व्यापार है । शब्द तीन प्रकार के होते हैं— वाचक, लक्षक और व्यञ्जक तथा इनसे क्रमशः तीन प्रकार के अर्थ प्रकट होते हैं वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ । इन तीनों अर्थों की प्रतीति तीन प्रकार की शक्तियों— अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना द्वारा होती है । (भारतीय साहित्यशास्त्र कोश, पृष्ठ १२८३)
शब्दशक्तियों में सबसे पहले परिगणित तथा इस कारण प्रथमा नाम से जानी जाने वाली अभिधा शक्ति से प्रकट होने वाले वाच्यार्थ के बारे में काव्यशास्त्रीय आचार्यों के मत के अनुसार उसका निरूपण करते हुए संस्कृत काव्यों में उसकी उपस्थिति, स्वरूप तथा व्यावहारिक पक्ष का विश्लेषण करके उसका स्थान निरूपित करना इस लेख का प्रमुख उद्देश्य है जिससे यह जानने का प्रयास किया जाएगा कि वाच्यार्थ काव्य- सौन्दर्य को बढ़ाने तथा उसके प्रवाह को गतिमान बनाने में कितना सफल होता है और संस्कृत काव्यों में उसका कहाँ तक और कितना प्रयोग किया गया है ।
वाच्यार्थ : आचार्य मम्मट का मत
वाच्य के मूल अर्थात् वाचक को व्याख्यायित करते हुए आचार्य मम्मट ने प्रतिपादित किया है कि “जो साक्षात् संकेतित अर्थ को (अभिधा शक्ति के द्वारा) कहता है वह ‘वाचक’ कहलाता है ।[1](साक्षात्संकेतितं योऽर्थमभिधत्ते स वाचकः) । वाचक शब्दों से जो अर्थ प्रस्फुटित होते हैं वे वाचकार्थ अथवा वाच्यार्थ कहलाते हैं । (वाच्यादयस्तदर्थस्याः स्युः – काव्य प्रकाश, २.६) वाच्यार्थ के मूल में जो शक्ति कार्य करती है उसे अभिधा कहा जाता है जिसे आचार्य मम्मट ने इस प्रकार परिभाषित किया है :
“स मुख्योऽर्थस्तत्र मुख्यो व्यापारोऽस्याभिधोच्यते” (काव्य प्रकाश, २.८)
अर्थात्, ऐसा अर्थ मुख्य अर्थ कहलाता है जो साक्षात् संकेतित हो; ऐसे साक्षात् अर्थ का बोधन कराने वाले व्यापार को अभिधा कहते हैं । इसकी व्याख्या काव्यप्रकाश के व्याख्याकार आचार्य विश्वेश्वर ने इस प्रकार की है :
“जैसे शरीर के सारे अवयवों में मुख सबसे प्रधान है और सबसे पहले दिखलाई देता है उसी प्रकार वाच्य, लक्ष्य तथा व्यङ्ग्य सब अर्थों में वाच्यार्थ सबसे प्रधान और सबसे पहले उपस्थित होने वाला अर्थ है इसलिए मुख के समान होने से उसको ‘मुख्यार्थ’ कहा जाता है । उस वाच्यार्थ या ‘मुख्यार्थ का बोधन करानेवाला जो शब्द का व्यापार है उसको अभिधा व्यापार कहते हैं । अतः यहाँ वाच्यार्थ ही मुख्यार्थ कहा जाता है ।” (काव्यप्रकाश, पृष्ठ,५०)
आचार्य विश्वनाथ का मत
साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने भी सभी आचार्यों की भाँति अभिधा को प्राथमिक मानते हुए इस प्रकार परिभाषित किया है :
“तत्र संकेतितार्थस्य बोधनादग्रिमाभिधा” (साहित्यदर्पण, २.४)
अर्थात् अभिधा शक्ति वह है जिससे संकेतित (प्रसिद्ध) अर्थ का अवबोध हुआ करता है और इसीलिए इसे शब्द की प्रथम शक्ति कहा करते हैं । इस प्रकार आचार्य विश्वनाथ ने स्पष्ट रूपसे अभिधा को प्रथम और अनिवार्य तत्त्व मानते हुए उसे संकेतित अर्थ का साक्षात् कराने का प्रधान साधन माना है ।
काव्यशास्त्र के इन दो प्रमुख एवं विरोधी आचार्यों के मतों से स्पष्ट है कि अभिधा एक ऐसी शब्दशक्ति है जो सर्वप्रथम संकेतित अर्थ का बोध कराती और जिसके उपरान्त ही लक्षणादि अन्य अर्थों का उद्घाटन होता है । इसी कारण अभिधा को प्रथमा, मुख्यार्थबोधक एवं वाच्यार्थ भी कहा जाता है ।
संस्कृत काव्यों में वाच्यार्थ का प्रयोग
यद्यपि उत्तम काव्य का पैमाना व्यङ्ग्यार्थ का बाहुल्य माना जाता है जिससे कवि की प्रतिभा का भी अनुमान होता है और काव्य की अलौकिकता का भी । तथापि वाच्यार्थों का भी प्रयोग संस्कृत के अग्रगण्य कवियों ने यथाअसवर किया है तथा उनका यह प्रयोग काव्य के रस प्रवाह में सहायक ही हुआ है । काव्य जगत् में मुख्यतः महाकवि माघ, कालिदास,भारवि, शतकत्रय के प्रणेता महाराज भर्तृहरि, महाकवि शूद्रक आदि ने लक्ष्यार्थ, व्यङ्ग्यार्थ के साथ-साथ व्याच्यार्थ का भी प्रयोग किया है ।
महाकवि कालिदास को मुख्यतः व्यङ्ग्यार्थ का सिद्धहस्त कवि माना जाता है परन्तु उन्होने न केवल व्यङ्ग्यार्थ और लक्ष्यार्थ का प्रयोग किया है, अपितु वाच्यार्थ का भी यत्र-तत्र परन्तु चमत्कारोत्पादक प्रयोग किया है । उनके महान् ग्रन्थ “अभिज्ञानशाकुन्तलम्” में इसके प्रयोग दृष्टव्य हैं:
ग्रीवाभङ्गाभिरामं मुहुरनुपतति स्यन्दने वद्धदृष्टिः
पश्चार्धेन प्रविष्टः शरपतनभयाद् भूयसा पूर्वकायम् ।
दर्भैरर्धावलीढैः श्रमविवृतमुखभ्रंशिभिः कीर्णवर्त्मा
पश्योदग्रप्लुतत्वाद् वियति बहुतरं स्तोकमुर्व्यां प्रयाति ॥ (अभिज्ञानशाकुन्तलम्, १.७)
प्रस्तुत पद्य में महाकवि कालिदास ने महाराज दुष्यन्त के मुखसे मृग की भाव-भंगिमाओं का वर्णन किया है, मृग का मनोहरतापूर्वक गर्दन घुमाना, पीछे घूमकर आते हुए रथ पर दृष्टिपात् करना, ये सभी कथन सीधे-सीधे कहे गये हैं जिनमें वाच्यार्थ ही प्रधान है, फिर भी यहाँ हिरण की विभिन्न गतिविधियों को देखकर सहृदय को रस की अद्भुत अनुभूति होती है । इसी प्रकार यह पद्य दृष्टव्य है :
नीवाराः शुकगर्भकोटरमुखभ्रष्टास्तरुणामधः
प्रस्निग्धाः क्वचिदिङ्गुदीफलभिदः सूच्यन्त एवोपलाः ।
विश्वासोपगमादभिन्नगतयः शब्दं सहन्ते मृगा-
-स्तोयाधारपथाश्च वल्कलशिखानिष्यन्दरेखाङ्किताः ॥ (अभि.शा., १.१३)
इस श्लोक में आश्रम की भूमि में प्रवेश करते ही महाराज दुष्यन्त वहाँ की छटा देखकर यह श्लोक कहते हैं जिसे सुनकर या देखकर सहृदय अनायास ही आश्रम के वातावरण में प्रविष्ट हो जाता है और उसे शान्त रस जैसा एक भक्तिपूर्ण रस प्राप्त होने लगता है जो उसे शान्तिपूर्ण आनन्द प्रदान करता है ।
चलापाङां दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमतीं
सहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः ।
करौ व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधरं
वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती ॥ (अभि.शा. १.२०)
इस पद्य में भी राजा दुष्यन्त, शकुन्तला को उस स्थिति में देखते हैं जब उसे एक भ्रमर आतंकित कर रहा था और शकुन्तला की भाव-भंगिमाएं अत्यन्त रसपूर्ण थीं । यहाँ पर कवि ने यद्यपि लक्षणा या व्यंजना का प्रयोग नहीं किया है तथापि वाच्यार्थ से ही शृंगार रस की अद्भुत चर्वणा हो रही है ।
स्निग्धं वीक्षितमन्यतोऽपि नयने यत्प्रेयन्त्या तया
यातं यच्च नितम्बयोर्गुरुतया मन्दं विलासादिव ।
मा गा इत्युपरुद्धया यदपि सा सासूयमुक्ता सखी
सर्वं तत् किल मत्परायणमहो कामी स्वतां पश्यति ॥ (अभि. शा., २.२)
इस श्लोक में भी राजा दुष्यन्त अपने साथी विदूषक माधव्य से शकुन्तला के बारे में बता रहे हैं कि कैसे वह उन्हे देखकर रुक गयी थी, जाते हुए पाँवों को इस तरह उठा रही थी और उसके नितम्ब इतने गुरु प्रतीत हो रहे थे मानो वह न जाना चाहती हो । यहाँ पर दृष्टव्य है कि यद्यपि शैली वर्णनात्मक है तथा बात सीधे-सीधे कही गयी है, परन्तु अलंकारों का संतुलित प्रयोग, अद्भुत वाक्विन्यास आदि अनेक ऐसे चमत्कार उत्पन्न कर दिये गये हैं कि यद्यपि बात वाच्यार्थ के माध्यम से कही गयी है फिर भी श्रंगार रस की एक अद्भुत छटा दिखाई देती है ।
इसी प्रकार अनेकशः प्रयोग सम्पूर्ण अभिज्ञानशाकुन्तलम् में यत्र-तत्र देखने को मिलते हैं जहाँ पर वाच्यार्थ का ही प्रयोग है परन्तु वहाँ भी रसानुभूति तथा आनन्द की प्राप्ति सहृदय को उसी भाँति होती है जैसे अन्य व्यापारों से होती है । यह इस तथ्य का प्रमाण है कि यदि सही स्थान पर वाच्यार्थ का प्रयोग किया जाय तो रस चर्वणा में कोई बाधा नहीं होती ।
इसी प्रकार महाकवि कालिदास की महान् कृति मेघदूतम् में भी वाच्यार्थ के द्वारा अनेक स्थलों पर इस प्रकार के वर्णन प्राप्त होते हैं जहाँ काव्य की उत्तम सृष्टि भी हुई है । यह एक गीतिकाव्य है जिसमें एक विरही यक्ष अपनी प्रिया के पास मेघ को दूत बनाकर भेजता है जो कि उसकी वल्लभा से उसकी कुशल-क्षेम कहने के लिए यक्ष पुरी जाता है । इस काव्य में यक्ष ने अनेक प्रकार से मेघ की स्तुति करके उसे अपनी नगरी भेजता है तथा बड़ी कुशलता से उसका मार्ग-निर्देश करता है । इसमें अनेक स्थलों पर सूक्तियों एवं रसात्मक पद्यों का प्रयोग कालिदास ने किया है जहाँ वाच्यार्थ के माध्यम से सम्पूर्ण सौन्दर्य एवं रस की अनुभूति होती है :
तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नीमव्यापन्नामविहतगतिर्दृक्ष्यसि भ्रातृजायाम् ।
आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि ॥ (मेघदूतम्, पूर्वमेघ, श्लोक ९)
इस श्लोक में यक्ष का करुण विलाप सहित ये निवेदन कि तुम्हारी भाभी यानि मेरी पत्नी, विरह के बाकी बचे दिनों को गिन-गिनकर काट रही होगी और पुनर्मिलन की आशा के कारण वह अवश्य जीवित होगी; इस भावुकतापूर्ण कथन का श्रवण मात्र ही श्रोता के हृदय में वियोग शृंगार रस की प्रत्यक्ष अनुभूति करा देता है । जबकि यहाँ भी महाकवि ने वाच्यार्थ के माध्यम से ही यह कथन किया है ।
इसी प्रकार के अन्य अनेक उदाहरण मेघदूत के दोनों सर्गों (पूर्व एवं उत्तरमेघ ) में देखने को मिल जाते हैं जहाँ अभिधा शब्दशक्ति के द्वारा ही चमत्कारोत्पादक काव्य-सृष्टि का विधान किया गया है ।
महाकवि माघ की अमर कृति, “शिशुपालवधम्” मे अनेक स्थलों पर भगद्विषयक रतिभाव का स्फुरण हुआ है जहाँ वाच्यार्थ के माध्यम से ही उत्कृष्ट काव्य की सृष्टि की गयी है और रस भी प्रस्फुटित हुआ है । एक उदाहरण दृष्टव्य है :
श्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगज्जगन्निवासः वसुदेवसद्मनि ।
वसन्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिरण्यगर्भाङ्गभुवं मुनिं हरिः ॥ (शिशुपालवधम्, १.१)
यह शिशुपालवधम् महाकाव्य का प्रथम श्लोक है जिसमें माघ ने उत्कृष्ट काव्य-प्रतिभा का परिचय देते हुए यह सिद्ध कर दिया है कि यदि अलंकारों, शब्द-पदलालित्य का संतुलित प्रयोग किया जाय तो वाच्यार्थ के द्वाराकिया गया अभिव्यक्तिकरण भी सहृदय के हृदय में अनेक प्रकार से रस की अनगिनत धाराएँ प्रवाहित कर देता है । इसके अनन्तर अगले ११ श्लोकों में महर्षि नारद का वर्णन है जो इतना भक्तिपूर्ण एवं चमत्कारोत्पादक है कि अनायास ही सहृदय को भगवत्विषयक रति की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है ।
महाकवि भारवि, जिनकी एकमात्र कृति “किरातार्जुनीयम्” को वृहत्त्रयी के अन्तर्गत परिगणित किया जाता है और साहित्य-जगत् में इस कृति का विशेष महत्त्व है, इसमें भारवि ने अपनी सम्पूर्ण काव्य-प्रतिभा का उद्घाटन किया है तथा इसके पद्य आज के संस्कृत लेखन के भी महत्त्वपूर्ण प्रेरणा-स्त्रोत हैं । इस महाकाव्य में भी वाच्यार्थ का निदर्शन होता है प्रथम सर्ग में तो कवि ने वनेचर के बोलने के पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि वह द्वयर्थक (लक्षणादि) का प्रयोग न करके अत्यन्त सीधे और एकार्थक ढंग से तथा निश्चित अर्थ वाले वाक्यों के द्वारा सारा वृतांत कहेंगे ।[2]
इसी प्रकार के अनेक उदाहरण किरातार्जुनीयम् महाकाव्य में मिलते हैं जहाँ कवि ने अपने प्रतिभा के बल पर इस तरह से अलंकारो, छन्दों, इत्यादि का प्रयोग किया है कि वाच्यार्थ के माध्यम से ही अलौकिक काव्य की अनुभूति प्रत्यक्ष अनुभूति होती है :
अखण्डमाखण्डलतुल्यधामभिः चिरं धृता भूपतिभिः स्ववंशजैः ।
त्वयात्महस्तेन मही मदच्युता मतङ्गजेन स्त्रगिवापवर्जिता ॥ (किरातार्जुनीयम्, १.२९)
द्रौपदी द्वारा कही गयी यह उक्ति युधिष्ठिर के प्रति है जिसमें उसने महाराज युधिष्ठिर को झकझोरते हुए कहा है कि आप ने इन्द्र के समान प्रभावशाली, अपने ही वंश में उत्पन्न नृपों के द्वारा दीर्घकाल से अखण्डरूप से शासित पृथ्वी को इस प्रकार गँवा दिया, जैसे मदस्त्रावी गजराज (अपने ही गले में पड़ी) माला को अपनी ही सूँड़ से फेंक देता है ।
इस पद्य में कवि ने उपमा अलंकार का तथा ओज शैली का प्रयोग करते हुए इस प्रकार इसे रससिक्त किया है कि यहां वाच्यार्थ ही विशाद मिश्रित एक विलक्षण प्रकार के रस की अनुभूति करा देता है ।
इसी प्रकार के पद्य यत्र-तत्र बिखरे हुए मिल जाते हैं जहाँ कवि ने अभिधा का प्रयोग करके भी रस की सुन्दर एवं चमत्कारोत्पादक सृष्टि की है ।
“मृच्छकटिकम्” के लेखक महाकवि शूद्रक, को भी उनकी एक ही कृति ने साहित्य-जगत् में उनका स्थान स्थित किया तथा भारतीय नाट्य-साहित्य में उनका प्रकरण-ग्रन्थ विद्वानों के मध्य आज भी आदर की दृष्टि से देखा जाता है । इस नाट्य विधा में समाज के यथार्थ का सजीव वर्णन मिलता है जहाँ अनेक पात्र जो अधम हैं, नृप है, वेश्या, गणिका, नर्तकी, जुआड़ी, मद्यपायी हैं, सभी अपनी-२ भाषा में संवाद करते हुए इसे रोचक एवं मनोहारि बना देते हैं, परन्तु साथ में ये भी दृष्टव्य है कि इस नाट्यग्रन्थ में भी वाच्यार्थ का प्रयोग बहुलता से किया गया है । नाटक का नायक एक दरिद्र विप्र चारुदत्त तथा नायिका एक गणिका वसन्तसेना है, और अन्य अधम पात्र भी हैं परन्तु सभी लगभग वाच्यार्थ के द्वारा ही संवाद संप्रेषण करते हैं ।
मृच्छकटिकम् के वाच्यार्थ के उदाहरण दृष्टव्य हैं :
यासां बलिः सपदि मद्गृहदेहलीनां हंसैश्च सारसगणैश्च विलुप्तपूर्वः ।
तास्वेव सम्प्रति विरढ़तृणाङ्कुरासु बीजाञ्जलिः पतति कीटमुखावलीढः ॥ (मृच्छकटिकम् १.९)
सत्यं न मे विभवनाशकृताऽस्ति चिन्ता भाग्यक्रमेण हि धनानि भवन्ति यान्ति ।
एतत्तु मां दहति, नष्टधनाश्रयस्य यत् सौहृदादपि जनाः शिथिलीभवन्ति ॥ (वहीं, १.१३)
इस श्लोक के आगे चारुदत्त ने दरिद्रता से आने वाले अवसादों तथा विपत्तियों का वर्णन किया है । इसी सर्ग में आगे बड़ा हास्यपूर्ण वर्णन आता है जब वसन्तसेना का पीछा करते हुए शकार यह हास्यपूर्ण श्लोक कहता है:
मम मअणमणंगं मम्महं वड्ढअन्ती णिशि अ शअणके मे णिद्दअं आक्खिवन्ती ।
पशलशि भअभीदा पक्खलन्ती खलन्ती मम वशमणुजादा लावणश्शेव कुन्ती ॥ (मृच्छकटिकम् १.२१)
शकार की एक अन्य उक्ति दृष्टव्य है जहाँ उसने एक असन्तुलित तथा हास्यास्पद उक्ति कही है और वहभी इस शैली में महाकवि शूद्रक ने उसे प्रस्तुत किया है कि वह वाच्यार्थ द्वारा ही हास्य रस का सम्पूर्ण आनन्द दे देता है:
झाणज्झणन्तबहुभूषणधद्दमिश्शं कि दोवदी विअ पलाअशि लामभीदा ।
एशे हलामि शहशत्ति जधा हणूमे विश्शावशुश्श वहिणिं विअ तं शुभद्दं ॥ (वहीं, १.२५)
यहाँ राम के डर से द्रौपदी का भागना, सुभद्रा का अपहरण हनुमान के द्वारा कहना एक हास्यास्पद उक्ति है जिसे महाकवि शूद्रक ने बड़ी कुशलतापूर्वक शकार से कहलवाकर उसे एक मूर्ख और हँसी का पात्र बना दिया है । वह हर बात सीधे-सीधे शब्दों में कहता है परन्तु ऐसे उपमानों का प्रयोग करता है कि अनायास ही हास्य रस प्रस्फुटित हो आता है ।
शतकत्रय के रचनाकार महाराज भर्तृहरि ने भी अपने मुक्तक काव्य में वाच्यार्थ के माध्यम से विचारों को रखा है जो आज के ग्रामीण समाज में वृद्धों के मुख से सुनने को मिल जाता है । भर्तृहरि के सभी श्लोक व्यावहारिक जीवन यापन के सफलतापूर्वक जीने के निमित्त लिखे गये हैं जिनमें बहुत से ऐसे पद्य प्राप्त होते हैं जिनमें अभिधा शक्ति के द्वारा कथन किया गया है । इनके मुख्य शतक, “नीतिशतक” के कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं:
प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्त्रदंष्ट्रान्तरा-
त्समुद्रमपि संतरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम् ।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारये-
न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥४॥
शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं
महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् ।
अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथ वा
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ॥१०॥
“मूर्खपद्धति” नामक खण्ड से लिये गये इनश्लोकों में यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि इनमें कवि ने अपनी एक कथन की सिद्धि कई प्रकार के उदाहरणों एवं दृष्टांतों के द्वारा की है जिन्हे वाच्यार्थ के द्वारा व्यक्त किया गया है । श्लोक सं. १० में यह स्पष्ट दिखाई देता है, इस मुक्तक के अन्तिम चरण में प्रधान वाक्य का कथन किया गया है तथा उसकी सिद्धि के लिए प्रारम्भ के तीन चरणों में उसके लिए दृष्टांत दिया है ।
इसी प्रकार सम्पूर्ण नीतिशतक में ऐसे अनेक पद्य मिलते हैं जिनमें अभिधा शक्ति के द्वारा कथन किया गया है और प्रधान कथन की सिद्धि के लिए अनेक प्रकार के दृष्टांत दिये गये हैं ।
उपरोक्त विभिन्न काव्य विधाओं के अनुशीलन के उपरान्त निष्कर्षतः यह प्रतिपादित किया जा सकता है कि वाच्यार्थ का स्थान न केवल प्रथम है अपितु वह प्रधान भी है । यद्यपि सभी आचार्यों ने वाच्यार्थ के संदर्भ में यही प्रतिपादित किया है कि लक्ष्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ को व्यक्त करने में भी वाच्यार्थ की ही मुख्य भूमिका होती है, तथापि कवियों ने न केवल वाच्यार्थ को इस रूप में लिया है अपितु उसका साक्षात् प्रयोग भी किया है ।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची :-
· श्रीमम्मटाचार्यविरचितकाव्यप्रकाशः, आचार्य विश्वेश्वर(व्याख्याकार) प्रकाशक- ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, जून २००९ ।
· आचार्यविश्वनाथप्रणीतः साहित्यदर्पणः, डॉ. सत्यव्रत सिन्हा (सम्पादक) प्रकाशक- चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी. वर्ष २००७ ।
· आनन्दवर्धनाचार्यविरचितध्वन्यालोक, आचार्य विश्वेश्वरसिद्धांतशिरोमणि (व्या.) प्रकाशक- ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी. अगस्त २००९ ।
· साहित्यदर्पण, डॉ. कमला देवी (व्याख्याकर्त्री), प्रकाशक- प्रयाग पुस्तक भवन, इलाहाबाद,२००९
· महाकविकालिदासकृतमभिज्ञानशाकुन्तलम्, (सं.) डॉ. वासुदेवकृष्ण चतुर्वेदी प्रकाशक- महालक्ष्मी प्रकाशन, आगरा ।
· मेघदूतम् (पूर्वमेघः) व्याख्याकार- श्री तरिणीश झा, प्रकाशक- रामनारायणलाल एण्ड कम्पनी, इलाहाबाद ।
· श्रीमाघप्रणीतं शिशुपालवधम्, (व्याख्याकार) श्रीरामजी लाल शर्मा, प्रकाशक- चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी. संस्करण २००९ ।
· महाकविभारविप्रणीतं किरातार्जुनीयम्, मिश्रोऽभिराजराजेन्द्रः (व्याख्याकारः), प्रकाशक- अक्षयवट प्रकाशन, इलाहाबाद. दशम् संस्करण सन् २००६ ।
· महाकविशूद्रकप्रणीतं मृच्छकटिकम्, डॉ. जगदीशचन्द्र मिश्र (व्याख्याकार) प्रकाशक- चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी. संस्करण-२००९ ।
· महाकविभर्तृहरिविरचितं नीतिशतकम्, डॉ. राजेश्वर मिश्र (व्याख्याकार) प्रकाशक- अक्षयवट प्रकाशन, इलाहाबाद. वर्ष २००७ ।
· भारतीय साहित्यशास्त्र कोश, डॉ. राजवंश सहाय ‘हीरा’ (लेखक) प्रकाशक- बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना संस्करण २०००३ ।
13 July, 2011
Online Sources for Sanskrit Study : A Collection of Sites
संस्कृताध्ययन के लिए अन्तर्जालीय स्त्रोत
सतरुद्र प्रकाश
विशिष्टसंस्कृताधन केन्द्र
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली ११००६७
ई.मेल : satrudra90@gmail.com
प्राक्कथन
आधुनिक युग में जबकि हमारे अधिकांश कार्य मशीनो से संचालित होने लगे हैं तथा अब मशीनो का प्रयोग ज्ञान के संरक्षण एवं प्रसारण में भी होने लगा है , तो ऐसे में बहुत आवश्यक है कि इन सभी साधनों का समुचित प्रयोग करते हुए हम अपनी अमूल्य शैक्षणिक एवं समृद्ध वैचारिक धरोहर को न केवल संरक्षित करें , अपितु उसको प्रसारित करने में भी इनका उपयोग करें । साथ ही साथ अपनी उस महान् बौद्धिक परम्परा को भी बनाए रखें , जिसे हमारे प्राचीन मनीषियों ने अहर्निश शोध एवं अन्वेषण करके उत्पन्न किया था ।
इसी मूल धारणा के परिपेक्ष्य में आधुनिक समय में भाषा के संरक्षण एवं उसमें निहित ज्ञान को आलोकित करने के निमित्त कई ऐसे साधनों का उपयोग प्रारम्भ हो गया है , जिनसे इन्हे सुरक्षित करना आसान हो । इसी कड़ी में संगणक के प्रयोग ने एक क्रान्तिकारी परिवर्तन किया है । संगणक के चलन से आज ऐसी असंख्य अमूल्य निधियाँ पुनर्जीवित हो चुकी हैं जो विलुप्त होने के कगार पर आ गईं थीं । आज हम संगणक के माध्यम से वह सब कुछ आसानी से प्राप्त कर लेते हैं , जो हमारे ज्ञान-वर्धन के लिए आवश्यक है ।
संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचार-प्रसार में भी संगणक उसी तरह महती भूमिका निभा रहा है , जिस तरह अन्य क्षेत्रों में । सबसे सराहनीय बात तो यह है कि वर्तमान में सस्कृत के शुभचिन्तकों ने इसका बखूबी उपयोग करते हुए बहुत सारी कृतियों का संरक्षण भी किया है । आज अन्तर्जाल पर संस्कृत की बहुत सी दुर्लभ पुस्तकें , पाण्डुलिपियाँ , चित्र एवं प्रशस्तियाँ , सुरक्षित हैं ।
दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि आज की व्यस्त जीवनचर्या में किसी को इतना समय नहीं मिल पाता कि वह एकान्त में रहकर कुछ समय तक स्व-चिन्तन एवं विचार कर सके । वह काम के बोझ के कारण तनावग्रस्त होने लगता है । ऐसी स्थिति में एक ही रास्ता होता है तनाव से बचने का ; और वह है धार्मिक एवं आध्यात्मिक विचार-मंथन । और उसके इस कार्य में सर्वाधिक योगदान देता है ; अन्तर्जाल । क्योंकि जो धार्मिक एवं आध्यात्मिक सामग्री नहीं मिल पाती , उन दुर्लभ सामग्रियों को भी यह आसानी से उपलब्ध करा देता है और समय की बचत भी करता है ।
इस प्रकार आज अन्तर्जाल पर ऐसी अनेक sites उपलब्ध हैं जिनमें संस्कृत की बहुत सी सामग्री सुरक्षित हैं । इन्ही में से कुछ महत्त्वपूर्ण Websites की जानकारी इस लेख में दी गई है जिसके माध्यम से वे सभी लाभान्वित हो सकते हैं ।
भूमिका
इस लेख में यह दर्शाया गया है कि आज संस्कृत के कितने कार्य अन्तर्जाल पर उपलब्ध हैं तथा उनका उपयोग एक सामान्य व्यक्ति कैसे कर सकता है ; खासकर ऐसे लोग जो संस्कृत के बारे में जिज्ञासा करते हैं लेकिन उन्हे संस्कृत की Sites की जानकारी नहीं होने की वजह से वे इसके लोकोपकारी ज्ञान से वंचित रह जाते हैं । यहां जिन Sites का उल्लेख किया गया है , उनमें वे सभी सूचनाएं हैं जिनका ज्ञान एक सामान्य भारतीय को होनी चाहिए ।
उल्लेखनीय है कि इस लेख में जो सामग्री उपलब्ध करायी गयी है , वह अन्तर्जाल में निहित जितने भी संस्कृत के स्त्रोत हैं , उनमें से कुछ मुख्य का एक संकलन है । इसमें उन स्त्रोतों की मूल जानकारियों को देने की कोशिश की गयी है जिनकी सहायता से आप संस्कृत के मूल स्त्रोतों को Online प्राप्त कर सकते हैं । यहां जितने भी स्त्रोतों के सूत्र दिये गये हैं वे किसी भी व्यक्ति को आसानी से Links की विस्तृत जानकारी देने के लिए है । इसका मुख्य लक्ष्य, विस्मृत होती जा रही संस्कृत की ओर लोगों का ध्यान खींचना है । क्योंकि संस्कृत ऐसी भाषा है जो हर प्रकार से आज भी विश्व की किसी भी भाषा से श्रेष्ठ तो है ही ; इसके साथ ही इसमें निहित ज्ञान किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित न होकर हमारे उन ऋषियों के निरन्तर चिन्तन का परिणाम है, जो उन्होने अपनी प्रकृष्ट प्रज्ञा से प्राप्त किया था । इसलिए यह केवल भाषा ने होकर सम्पूर्ण ज्ञान ही है । इसमें जो भी तथ्य मिलते हैं वे आज के आधुनिक वैज्ञानिक शोधों से सिद्ध हो रहे हैं । यह इस बात का प्रमाण है कि ये कोई सामान्य सी भाषा मात्र न होकर सभी प्रकार के ज्ञान का स्त्रोत है । इसके अतिरिक्त संस्कृत का व्याकरण जितना सुव्यस्थित एवं प्रमाणित है , उतना किसी भाषा का नहीं है । यही कारण है कि संस्कृत में संगणकीय भाषा के रूप में स्थापित होने की पूरी संभावना है जिसे संगणकीय विशेषज्ञ कार्य रूप में परिणत करने में लगे हुए हैं ।
इन्ही सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इस संग्रह-लेख में उस पक्ष का विश्लेषण किया गया है जो संस्कृत में दीक्षित होने वाले एक सामान्य व्यक्ति को होती है । इससे सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि इतने सारे स्त्रोतों को एक जगह पाकर किसी भी व्यक्ति में संस्कृत के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न होगी और वह उसके लिए खोज करेगा तथा और ग्रन्थों के बारे में जानना चाहेगा । इस प्रकार वह आसानी से इस विस्तृत क्षेत्र में प्रविष्ट होकर अपनी ज्ञान पिपासा की शान्ति तो करेगा ही ; साथ की साथ इस भाषा एवं विचार-परम्परा को संरक्षित करने में भी अपनी योगदान देगा ।
इस आशा के साथ कि इसके माध्यम से संस्कॄत-जिज्ञासुओं को उनकी सुविधा के लिए कुछ मुख्य Sites का ज्ञान होगा, जिनसे वे संस्कृत में निहित ज्ञान के माध्यम से स्व-हित एवं राष्ट्र-हित में कुछ योगदान दें सकेंगे ; यह लेख प्रस्तुत है ।
किसी भी भाषा की जानकारी के लिए सबसे आवश्यक है , उसके शब्दकोश का ज्ञान । और इस पक्ष का पूरा ध्यान रखते हुए प्राचीन काल से ही संस्कृत के शब्दकोश लिखे गये थे । इसीलिए संस्कृत के शब्दों का विश्लेषण Computer के माध्यम से भी किया गया है तथा बहुत सी Sites का निर्माण हुआ है जो शब्दकोश (Dictionary) पर की बनायी गयी हैं । उनमें से कुछ मुख्य का विवरण इस प्रकार है :
इस Site में जाने पर जो Page खुलता है उसमें आप संस्कृत के शब्दों का अंग्रेजी भाषा में तथा अंग्रेजी के शब्दों का संस्कृत में अनुवाद कर सकते हैं । इसके मुख पृष्ठ पर जो विकल्प उपलब्ध हैं , उनमें “Login” के माध्यम से इस Site में Membership लेकर आप इसमें दिये गये शब्दकोश का पूरा उपयोग कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त Statistics , Discussion board , Recently Edited , Mobile Version नामक विकल्प हैं ।
इस Site के Home Page में जो मध्य भाग का Box है, उसमें ऊपर के उपलब्ध कराए गए शब्द का output एवं उदाहरण आता है । Page के निचले भाग पर एक अन्य विकल्प है , जो इसके संस्थापक Monier William के नाम पर है । इस पर click करने पर Sanskrit and Tamil Dictionaries नामक दूसरा page खुलता है जिसमें अंग्रेजी या संस्कृत में input देने पर उसका विस्तृत विवरण अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध कराता है ।
इस Site के मुख पृष्ठ पर इसका एक संक्षिप्त परिचय तथा इसके साथ एक Index है । इसमें वेद, ऋग्वेद, उपनिषद् , गीता , रामायण , महाभारत , योग , पुराण नाम से links हैं । “Major Work” नाम से जो box है, उसके अन्तर्गत अद्वैतसार मंजरी, अमरकोश , अष्टाध्यायी , आत्मविद्या विलास , उज्जयिनीकाव्यम् उपदेशसारम् , ऋतुसंहार, कालिदास : जीवन और कार्य , गायत्री-मन्त्र , चाणक्यनीति , तत्त्वबोध , तर्कसंग्रह , धातुपाठ आदि हैं ।
“Sanskrit Works” के अन्तर्गत ; अद्वैतवेदान्त , अद्वैतरसमंजरी , अद्वैतानुभूति , अपरोक्षानुभूति , आत्मबोध , आत्माष्टक , निर्वाणाष्टक , आदिशंकराचार्यपूजाविधि , कौपीनपंचक , जीवन्मुक्तानन्दलहरी , दशश्लोक , आदि कुल 40 संस्कॄत के ग्रन्थ एवं उनका विश्लेषण उपलब्ध है ।
Home Page के निचले भाग पर Dictionary, Documents तथा Links है । इसके तहत Idology and Sanskrit, Bhagvat Gita, Text scripture storage, General Sanskrit, Audio Storage, books and Courses नाम से links दिये गये हैं जिन पर जाकर ये सारी सामग्री पा सकते हैं ।
यह Site पूर्णतः श्रीमद्भागवद्गीता के लिए बनायी गयी है । इसके मुख पृष्ठ पर गीता का परिचय , गीता के लेखक का परिचय भगवान् विष्णु एवं उनके राम और कृष्ण रूप दो अवतारों के साथ-साथ व्यासकालीन संस्कृति का परिचय दिया गया है । ये सामग्री सार रूप में पहले पृष्ठ पर दी गयी है । इसके अलावा इसके Home Page पर ही “Introduction” नामक पहला link दिया गया है जिस पर click करने पर श्रीमद् भागवत् गीता का विस्तृत परिचय प्राप्त होता है । दूसरा link , “The Structure” है जिसमें गीता की संरचना के साथ इसकी Digital Structure की जानकारी दी गयी है । तीसरे link , “Contents” में पूरे ग्रन्थ का अध्यायवार Introduction दिया गया है । अगले विकल्प Lexicon में अंग्रेजी वर्णमाला के हिसाब से गीता में प्रयुक्त शब्दों का अर्थ दिया गया है । “Music” नामक विकल्प के अन्तर्गत श्रीकृष्ण एवं राम से संबन्धित भजनों का संकलन है । अन्य स्तम्भों में , “भगवद्गीता” , Modern Geeta आदि हैं । “Yog-sutra” नामक लिंक पर click करने पर www.theorderoftime.com/personal/yogathread नामक एक अन्य Site खुलती है जिस पर महर्षि पतंजलि का योग-सूत्र उपलब्ध है ।
“Links” के अन्तर्गत श्रीराम एवं श्रीकृष्ण से सम्बन्धित लगभग 100 अन्य स्त्रोत उपलब्ध हैं । “Image” में लगभग सभी साहित्यिक एवं धार्मिक चित्र दिये गये हैं ।
यह एक ऐसी Site है, जहां भारतीय संस्कृति, भाषा एवं साहित्य से संबंधित जानकारी उपलब्ध है । यहां Modern Sanskrit Dictionary नामक शब्दकोश मुख पृष्ठ पर है । इसके अतिरिक्त Learn Language में संस्कृत की प्राथमिक जानकारी दी गयी है ।
इस Site पर सबसे ऊपर Dictionaries के अन्तर्गत Sanskrit Dictionary का Page खुलता है जिसमें Sanskrit Online Dictionary , Monier-Williams Dictionary , Apte Sanskrit Dictionary आदि उपलब्ध है । इसके अतिरिक्त Corpora Digital Sanskrit Laxicon भी उपलब्ध है । संस्कृत के प्राथमिक एवं सामान्य ज्ञान के लिए Sanskrit Lessons नामक एक अध्याय अलग से है । इसके अतिरिक्त संस्कृत के अक्षर ज्ञान के लिए Sanskrit Fonts नाम से एक और लिंक है ।
इस Site के संस्थापक Prof. R. Kalyankrishan जो कि Department of Computer Science , IIT Madras India में कार्यरत हैं । इसके मुख-पृष्ठ पर sanskritdocuments.org तथा sanskritbharati नाम की दो अलग-अलग Sites के लिंक हैं जो इन Pages तक पहुँचाते हैं । इसके मुखपॄष्ठ के दाहिने किनारे पर Popular Pages के अन्तर्गत Learn Sanskrit , Sanskrit Dictionary , Multilingual Editor तथा भगवद् गीता का Link दिया गया है ।
इस Site पर “About us” में इन्होने अपने बारे में यह परिचय दिया है कि संस्कॄत को दैनिक प्रयोग की भाषा बनाना इनका लक्ष्य है और इसी आधार पर सन् 2005 में “विश्वजित दास , ज्योति प्रकाश मिश्र , इन्द्रजीत दास , अनूजा सतपथी ने भुवनेश्वर में इस का कार्य प्रारम्भ किया था । 23 अप्रैल 2005 को यह Site , Internet पर Publish हुई । इसका Web com भुवनेश्वर में स्थित है । यह वृहद् वेबसाइट है जिस पर अनेक संस्कृताध्ययन सामग्री उपलब्ध है । संक्षेप इनका परिचय इस प्रकार है—
“Tutorial” नामक पृष्ठ पर संस्कृत को बोलचाल की भाषा बनाने एवं उसके लिए उत्तम मार्ग के बारे में विचार किया गया है ।
“Literature” के अन्तर्गत एक सारिणी दी गयी है जिसमें उन प्रसिद्ध ग्रन्थों की सूची दी गयी है जो संस्कॄत जगत् के स्तम्भ हैं । इसमें , वेद, उपनिषद् , पुराण, रामायण , महाभारत, प्रमुख कवियों यथा ; भास, कालिदास, बाण, श्रीहर्ष, भारवि, माघम, दण्डी, शूद्रक आदि की रचनाएं आदि मिलती हैं ।
“Quotes” के अन्तर्गत आधुनिक महापुरुषों द्वारा संस्कॄत के बारे में कही गयी उक्तियों को रखा गया है ।
“Sanskrit Grammar Tutorial” में संस्कॄत व्याकरण से सम्बन्धित 16 अध्याय दिये गये है । इसमें लकार , सन्धि, समास, पदविधि, वाक्य-रचना, प्रत्यय तथा कारक आदि विषय रखे गये हैं ।
“Vocabulary” में संस्कृत के शब्द दिये गये हैं तथा उनका अंग्रेजी एवं ईरानी भाषा में है ।
इसे खोलने पर तीन भागों में विभक्त एक सारिणी मुखपृष्ठ पर प्रदर्शित होती है । इस सारिणी का पहला भाग Sanskrit Font है जिसमें दो विषय हैं—
1. Translation and Devanagari Fonts For Sanskrit
2. Fonts and Technical Manuals for Itranslator
दूसरे भाग में—
1. Rigveda , Yajurveda , Samveda , Atharvaveda and Other Sanskrit Documents. इसी में Yajurveda-sanskrit Documents नामक एक अन्य सारिणी में तैत्तिरीय ब्राह्मण-आरण्यक, एकाग्नि काण्ड , काठकम् आदि हैं ।
2. Documents, sanskritweb furdeutsche.
तीसरे भाग में—
1. Apple II Plus Nostalgia (Peeker Magazine Disk Files)
2. James Hadley Chase (Bibliography of Chase Books)
3. Font Forging Industry (Reports for Legal Authorities)
4. Bücher über das Verlagswesen (Buchkalkulation u.a.)
उल्लेखनीय है कि इस Site में इन सभी ग्रन्थों के मूल मन्त्रों को रखा गया है । इनकी कोई टीका या व्याख्या इनके साथ नहीं है, और इन्ही का अध्यायवार मन्त्र उपलब्ध हैं ।
इसकी स्थापना 9/3/1999 को की गयी थी । इस साइट के निर्माण का मुख्य उद्देश्य है— ऐसे ग्रन्थों तथा पाण्डुलिपियों का संरक्षण करना , जिन्हे “Secred Text घोषित किया गया है । ऐसी रचनाओं को प्रकाशित करके उनका न सिर्फ़ संरक्षण करना , बल्कि उनको पुनः चलन में लाने का प्रयत्न भी इस साइट के द्वारा किया जा रहा है ।
इस साइट के Home Page के बाँयी तरफ Topics हैं जिसमें विश्व के सभी धर्मों के क्रम से पुस्तकें दी गयी हैं । इसी में “Hinduism” पर क्लिक करने पर खुलने वाले पृष्ठ पर Vedas, Upanishadas, Puranas, Other Primary Texts, Epics, Mahabharat, Ramayan, Bhagvatageeta, Vedanta, आदि उपलब्ध हैं ।
Veda के अन्तर्गत चारों वेदों के मूल संस्कृत के साथ अंग्रेजी अनुवाद तथा पुराणों एवं उपनिषदों का भी अंग्रेजी अनुवाद मिलता है ।
Other Primary Texts के अन्तर्गत मनुस्मृति, आर्यसंहिता, शतपथ ब्राह्मण , गृह्यसूत्र ।
Epics में रामायण, महाभारत , गीता हैं ।
Later Texts में योगसूत्र, हठयोगदीपिका, दक्षिणमूर्तिस्तोत्र, सांख्ययोग, कालिदास की रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद तथा योगवासिष्ठ सम्मिलित हैं ।
इसमें अनेक भाषाओं के लिए Links दिए गए हैं । English के अन्तर्गत भारतीय भाषाएं हैं जिनमें Sanskrit में click करने पर वे सम्पर्क सूत्र आते हैं जहां संस्कृत के शब्दकोश उपलब्ध हैं ।
ऊपर दी गयी Sites मुख्यतः संस्कृत के शब्दकोश के लिए हैं जिनके माध्यम से शंका-समाधान एवं ज्ञानार्जन किया जा सकता है । अब जिन sites का विवरण दिया जा रहा है , वे प्रधानतः साहित्य से सम्बन्धित हैं । इनका परिचय इस प्रकार है ।
यह ज्ञान का विशाल भण्डार स्वरूप है जैसा कि इसके नाम से ही ध्वनित होता है ।
यहां Texts के अन्तर्गत अथर्ववेद, अमॄतबिन्दु, उपनिषद् , अर्थशास्त्र , अष्टांगहृदयसंहिता , अष्टाध्यायी , आपस्तम्ब गृह्यसूत्र जैसे लगभग सभी उपनिषदें, प्रातिशाख्य ग्रन्थ, सूत्र, स्मॄतियाँ, तथा कालिदास आदि लौकिक संस्कृत लेखकों की रचनाओं को समाहित किया गया है ।
Reference में
1. माधवीया धातुवॄत्ति (सायण कृत)
2. Whitney’s roots
3. Vadic Unicode Calander
Publication के अन्तर्गत—
Peter M. Scharf एवं Madcolm D. Hyman की पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनका प्रकाशन इस साइट पर 21 फरवरी 2011 को हुआ है ।
Hindu Primer के अन्तर्गत—
Introduction, Nature of Religion, Hinduism and Indus Valley Civilization, Model of Religion, The Importance Of Hinduism, Vedas आदि ऐतिहासिक तथा आध्यात्मिक विषयों पर लेख मिलते हैं ।
Vadic Chants में सूक्तों, मन्त्रों, तथा उपनिषदों के मन्त्रों का वाचन किया गया है जो यहां पर उपलब्ध हैं ।
Biographies में शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, केदारनाथदत्त भक्तिविनोद, रूपस्वामी आदि का परिचय तथा उनके कृतियों की जानकारी दी गयी हैं ।
Samskaras में पंच संस्कारों को समाहित किया गया है ।
Astronomy में मकर संक्रान्ति के बारे में सौर गतिविधि के बारे में बताया गया है ।
इसके अतिरिक्त Links नामक जो विकल्प है वहां पर तीन Search Engine के links दिये गये हैं—
I. SARIA
II. INDOLOGY
III. 123INDIA
इसके अतिरिक्त Book Storage, Journals, Books आदि विकल्प मौजूद हैं ।
यह एक ब्लॉग है जिसके लेखक Venetia Ansell हैं । इन्होने संस्कृत का अध्ययन Oxford में किया तथा इस समय बेंगलुरू में कार्यरत हैं । इस ब्लॉग में संस्कृत के श्लोक एवं परम्परागत धार्मिक चित्रों को सहेजा गया है । Arts and Books नामक एक लिंक भी दिया गया है जिसमें पुस्तकें एवं विविध कलाओं की जानकारी दी गयी है ।
यहां पर संस्कृत साहित्य का सामान्य परिचय है तथा इसके साथ ही जो विकल्प हैं , उनमें इस प्रकार ग्रन्थ मिलते हैं—
Sanskrit Literature के अन्तर्गत , हितोपदेश, जातक कथा, पालि साहित्य, पंचतंत्र, उपनिषद् हैं ।
Sanskrit Drama में अभिज्ञान शाकुन्तलम् , मालविकाग्निमित्रम् , रघुवंशमहाकाव्यं हैं ।
Sanskrit Poetry में कुमारसंभवम् , मेघदूतम् , ऋतुसंहार ।
Sanskrit Poets के अन्तर्गत अश्वघोष, बाणभट्ट, भारवि, भास, कालिदास, पाणिनि , वाल्मीकि तथा वेद व्यास ।
Veda के अन्तर्गत चारों वेदों का परिचय दिया गया है ।
इसके मुख पृष्ठ पर , इसे खोलते ही, एक पुस्तक आती है जिस पर क्लिक करने पर भारतीय संस्कृति से सम्बन्धित कई विकल्प खुल जाते हैं । इसमें से Literature Of India में जाने पर तमाम भारतीय भाषाओं की तरह संस्कृत का भी साहित्य उपलब्ध है । इसके अन्तर्गत Sanskrit Poetry, Sanskrit Prose, Scientific Literature in Sanskrit आदि मिलते हैं । इस साइट पर उपलब्ध सामग्री केवल परिचय रूप में दी गयी है ।
इस साइट पर संस्कृत के कवियों, उनकी रचनाओं एवं हिन्दी के कुछ कवियों के साथ ही “संस्कृत के लिए दक्षिण भारतीयों का योगदान” नामक एक अन्य महत्त्वपूर्ण ज्ञानवर्धक बृहद् लेख दिया गया है । इस पर इन सभी का संक्षेप में किन्तु पूर्ण परिचय देने का प्रयत्न किया गया है ।
अपनी इस साइट का परिचय इसके स्वपरिचय वाले भाग (about us) में इस प्रकार दिया गया है—
“The great national epics of India, the Maha·bhárata and the Ramáyana, reached their definitive form around the beginning of the common era. By their authority and comprehensive character they dominated Hindu literature for several centuries, as familiar episodes and themes were reworked. But Buddhism and Jainism developed their own literary traditions.
From early in the common era, a vast creative literature of novels, short stories, plays and poetry began to develop. Some took their subject matter from the national epics or the Buddhist scriptures, but many other sources also provided inspiration.
This new literary culture was vibrant and vivid. The dramatists wrote plays about palaces full of dancing girls, and gardens where peacocks screeched at the approach of the monsoon and elephants trumpeted in the stables, eager for combat or mating. Courtiers intrigued for influence and promotion. Merchants set off on their voyages with sadness at separation, and returned with joy and vast profits. The six seasons spun by at breakneck speed. Lovers kept their trysts in the cane groves down by the river. Holy men preached that worldly pleasures were worthless, and often were exposed as hypocrites.
This second flowering of classical Sanskrit literature lasted for more than a millennium. We shall bring to a worldwide audience the entire text of the two national epics, and fifty or more titles from the heyday. We hope that readers will find much to enjoy.”
यहां संस्कृत के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का संकलन किया गया है ।
यह साइट मुख्यतः योग एवं ध्यान से सम्बन्धित है । इसका परिचय इन्होने स्वयं इस प्रकार दिया है—
A world recognized leader in the field of Sanskrit & Yoga, Manorama tours the globe training students in the Path of Luminous Shabda. Luminous Shabda brings Sanskrit, Meditation, and Yoga philosophy together to bridge sacred teachings into every day life for the purpose of
Self-fulfillment and authentic happiness.
Manorama's style is one of earthy charm, which is supported by deep scholarship and humor. She is a graduate of Columbia University. In 2005, Manorama & Sanskrit Studies released the acclaimed Learn to Pronounce Yoga Poses, an invaluable tool for yoga teachers & students.
Manorama is committed to bringing about healing in the world through Sanskrit, and consciousliving.
इस साइट में आप सहभागी (Member) होकर यहां बताई जाने वाली योग की विधियों से लाभ लिया जा सकता है ।
यह एक वृहद् अन्तर्जालीय स्त्रोत है जिसके मुखपृष्ठ पर कई विकल्प उभरकर सामने आते हैं । इनमें प्रथम है, Bookstors इसमें संस्कॄत व्याकरण, शब्दकोश, मासिक संस्कॄत पत्रिकाएं तथा विज्ञान से सम्बन्धित जानकारी मौजूद है ।
Classics के अन्तर्गत संस्कॄत सिखाने के दो चरणों का उल्लेख है ।
Centers में संस्कृत के अध्ययन को बढ़ावा देने के लिए वैश्विक स्तर पर Zone बांटे गये हैं । इसकी शाखायें लगभग सभी प्रमुख देशों में स्थापित हैं । पूरे विश्व को पाँच Zone में बाँटा गया है ।
Resources में Library, Beginner dictionary, Sanskrit Dictionary, Sanskrit Newsनामक लिंक दिये गये हैं । Sanskrit News पर क्लिक करने पर प्रसार भारती की समाचार सेवा में प्रवेश किया जा सकता है ।
इस साइट की भी सामग्री विशाल है । इसमें भारतवर्ष के लगभग सभी त्यौहारों, नृत्य, संगीत, चित्रकला, खेल, सिनेमा, साहित्य, लोक संगीत, आदि की पूरी जानकारी रखी गयी है । यहीं पर Literature के अन्तर्गत—
Hindi Scripture में वेद, उपनिषद् , स्मृति, आगम, पुराण, दर्शन, गीता, ब्रह्मसूत्र, महाभारत, रामायण हैं ।
इनके अतिरिक्त कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वात्स्यायन कृत कामसूत्र, पंचतंत्र की कहानियां आदि हैं ।
Spiritual Liberary के अन्तर्गत ऋग्वेद , यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, सभी 11 उपनिषदें , 18 पुराण , गीता (शांकर भाष्य एवं इडविन एरनॉल्ड संपादित), ब्रह्म सूत्र, आदि शंकराचार्य की सभी रचनाएं तथा मनुस्मृति आते हैं ।
इसमें प्रवेश करते ही मुखपृष्ठ पर गरुड़-पुराण का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । मुख-पृष्ठ के ही बायीं ओर निम्नलिखित विकल्प संस्कृत के उपलब्ध हैं—
· Article on Hinduism
· Ayurveda and health
· Meditation and yoga
· Hindu Spiritual
· Mystical Experiences
· Sants and Gurus
· MP3 bhajan
· Videos on Hinduism
· Gods and Goddess
· Temples and holly Places
· Pictures on Hinduism
· Vadic Arcitecture
· Vadic Astrology
· Science and Nature
· Hindu Festivals
अब एक ऐसी साइट का परिचय आपको उपलब्ध कराया जा रहा है जिस पर लगभग सभी भारतीय भाषाओं में सभी के विषय में अमूल्य जानकारी को रखा गया है । यह साइट पूर्णतः सार्वजनिक भी है । इसे बढ़ाने में कोई भी जागरूक व्यक्ति मदद कर सकता है । उसका पता है—
इनके अतिरिक्त कुछ ऐसी Sites हैं जिनकी जानकारी नीचे दी जा रही है—
इस प्रकार इस लघु संकलनात्मक लेख में कुछ चुनिन्दा संस्कॄत जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी Sites का संग्रह किया गया है । इनके अतिरिक्त और भी इसी प्रकार के संस्कृताध्ययन के लिए Online Sources उपलब्ध हैं ।
इन सभी सम्मिलित प्रयासों का परिणाम है कि आज पूरे विश्व की निगाह एक बार फिर से संस्कृत की ओर उठने लगी हैं । इसे निरन्तर आगे बढ़ाते रहना हम सभी का कर्तव्य होना चाहिए जिससे कि यह ज्ञान परम्परा सदैव बनी रहे तथा इसका विधिवत् उपयोग सभी के लिए कल्याणकारी होता रहे ।
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