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02 December, 2010

Harishankara Parasaai's Essay

मनुष्य का गोश्त बच्चे भी क्यों न चखें
हरिशंकर परसाई
       जो शासक जितना अधिक भ्रष्टाचारी हो, उसे प्रजा को सदाचारी बनाने का उसी अनुपात में प्रयत्न करना चाहिए। यह निर्देश चाणक्य का नहीं है  पर हमारे जमाने में अगर चाणक्य का अवतार होता, तो दूसरा चाणक्य यही नीति-निर्देश शासकों को देता। वर्तमान शासक यही नीति अपना रहे हैं। बिहार के मुख्यमन्त्री जगन्नाथ मिश्र हैं। कोई भी हिन्दी या अंग्रेजी का साप्ताहिक पत्र उठाता हूँ, तो उसमें ४-५ पृष्ठ जगन्नाथ मिश्र की भ्रष्टाचार-कथा के होते हैं। दैनिक अखबारों में तो रोज ही यह पुण्यकथा टुकड़े-टुकड़े में आती है। रामायण में तो ७ काण्ड हैं, मुख्यमन्त्रियों के सौ-सौ काण्डों के महकाव्य बन चुके हैं। मैं अब साप्ताहिक पत्र खोलते डरता हूँ। पत्र के कवर पर अगर जगन्नाथ मिश्र का चित्र हो, तो इस डर से कि भीतर ‘स्टोरी’ होगी, मैं उस पत्र को पढ़ता ही नहीं। इनका यशोगान पढ़ते-पढ़ते लोग तंग आ चुके हैं।
       मगर मिश्रजी की आध्यात्मिक उदात्त भावना को देखिये कि वे बिहार के युवक छात्रों को सदाचारी बनाना चाहते हैं। यह सारे देश में विश्वविद्यालयों में परीक्षा का मौसम है। बिहार में ‘लार्ज स्केल’ (बड़े पैमाने) पर परीक्षाओं में नकल हो रही है। दूसरे भ्रष्ट साधन अपनाये जा रहे हैं, जैसे पेपर आउट करना। जगन्नाथ ने नकल तथा भ्रष्ट तरीके रोकने के लिए कठोर कार्यवाही करने के आदेश दिये हैं। महाराष्ट में पहले अध्यादेश था, जो अब कानून बन गया है। इसके मुताबित नकल करने वाले छात्र को जेल की सजा और जुर्माना होगा। पेपर आउट करने-कराने पर भी जेल होगी। पेपर आउट कराने के लिए पिता या अभिभावक, जो भी पैसे देगा,उसे भी सजा होगी।
       यह मौसम परीक्षा का ऐसा है कि अध्यापकगण खतरे में रहते हैं।अध्यापक उदास है और भयभीत स्वर में कहता है— कल से ‘इनविजिलेशन’ की ड्यूटी लग गयी है। यानि अदालत में फाँसी की सजा हो गयी है, बस टँगने की देर है। नकल पकड़ने गये, तो सिर फूटता है या छुरा घुसता है, कुछ ठिकाना नहीं। विश्वविद्यालय अध्यापकों के उड़नदस्ते परीक्षा-केन्द्रों पर भेजते हैं, तो उन पर पत्थर बरसते हैं। मेरी जानकारी में एक महाविद्यालय में तो उड़नदस्ते पर पत्थर फ़ेंकने का नेतृत्व खुद प्रिंसिपल कर रहे थे। वहाँ सामूहिक नकल हो रही थी। एक लॉ कॉलेज में सामूहिक नकल की परम्परा ही पड़ गयी थी। वहाँ की कापियाँ जाँचने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के अश्यापक के पास गयीं, तो बेचारे ने वो कापियाँ वापस कर दीं, इस नोट के साथ कि मुझमें इन कापियों को जाँचने की योग्यता नहीं है। ये छात्र नहीं हैं वरन् कानून की ‘अथॉरिटी’ (अधिकारी विशेषज्ञ) हैं।
      इनके बराबर ज्ञान तो मुझमें भी नहीं है। दादा लोग हैं। छुरा खुला हुआ डेस्क पर रखकर किताब से नकल करते हैं। एक-दो को जानता हूँ, जिन्होने डेस्क पर छुरा रख-रखकर एम.ए. और एल-एल.बी. कर लिया और छुरा दिखा-दिखाकर प्रोफ़ेसर से थीसिस लिखवाकर पी-एच.डी. भी कर ली। दादा लोग अध्यापकों की ड्यूटी लगा देते हैं।परीक्षा-केन्द्र के पास मकान में हा जरूरी विषय के अध्यापक पुस्तकें लिये बैठे रहते हैं। पेपर आता है और वे एक-एक प्रश्न के उत्तर साइक्लोस्टाइल कराके परीक्षा-भवन में भेजते जाते हैं एक कॉलेज की प्रबन्ध समिति का सदस्य था। परीक्षा के वक्त यों ही पहुँचा, तो धूप में २५-३० युवक खड़े हैं, जो भीतर अपने-अपने चेलों को प्रश्नों के उत्तर भेज रहे हैं। मैनें प्रिंसिपल से कहा— जब इस नैतिकता को स्वीकार ही कर लिया गया है, तो इन लोगों को तकलीफ क्यों हो, इनके लिए शामियाना लगवा दो और ठण्डे पानी के घड़े रखवा दो।
      और भी उज्ज्वल बात यह है कि कुछ अध्यापक खुद नकल करवाते हैं। ज्यों ही जासूस ने खबर दी कि उड़नदस्ता आ रहा है, सारी किताबें बाथरूम में छिपा दीं। खतरा टल गया, तो फिर किताबें निकाल लीं।
      उन्नीस-बीस नहीं, तो पन्द्रह-बीस का फ़र्क पड़ सकता है। पर होंगे वही मूल्य। शिक्षण-केन्द्रों में कम भ्रष्टाचार नहीं है। गुरुकुलों, ऋषि-मुनियों, शिक्षा की पवित्रता, आदर्श आदि की बात करना पाखण्ड है। जो यथार्थ है, वह यह कि शिक्षा के क्षेत्र में पढ़ने और पढ़ाने वाले आमतौर पर भ्रष्ट हैं। अपवाद जरूर है, अनुपात भी कम है। पर वस्तुस्थिति यही है, इसे लोग जानते हैं।
      पर भ्रष्ट शासक, भ्रष्ट समाजनेता, भ्रष्ट उपदेशक, भ्रष्ट तथाकथित देश-सेवक छात्रों को सदाचारी बनाना चाहते हैं, तो अच्छी बात है। महान चीनी लेखक लूशुन की बहुत मशहूर कहानी है— ‘एक पागल की डायरी।’ इसमें अन्त में वह ‘पागल’ लिखता है— ‘हम चार हजार सालों से मनुष्य का गोश्त ख़ा रहे हैं। बच्चों ने इसे नहीं चखा है। इन बच्चों को बचाओ।’
     हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति वाली जाति भी पाँच हजार सालों से मनुष्य का मांस खा रही हैं, सिर्फ़ मनु महराज के नियम को देख लीजिए— जैसे शूद्र यदि द्विज का नाम भी घृणा से ले ले, तो उसके मुँह में लोहे की गरम छड़ ठूँस दी जाय। यदि शूद्र; राजा या ब्राह्मण को उसका कर्तव्य बताने की धृष्टता करे, तो उसके मुँह और कान में गरम तेल डाल दिया जाय, मगर यदि ब्राह्मण शूद्र को मार डाले, तो उसे उतना ही प्रायश्चित्त करना पर्याप्त होगा, जितना सुअर और कुत्ते को मारने के लिए।
      हैं न हम लोग मनुष्यभक्षी सदियों से? और हम मनुष्य खानेवालों ने असम के छात्रों को, जिन्होने नरमांस का स्वाद नहीं लिया था, नरमांस खाना सिखा दिया है। अच्छा है कि दूसरी जगह के छात्रों को हम नरभक्षी बनाने से बचाना चाहते हैं।
        इन कड़े कानूनों से नकल रुकेगी, यह कुछ निश्चित नहीं। कौन नकल पकड़ेगा? कौन झंझट लेगा? कौन खतरा उठायेगा। पुलिस क्या एक बला और मोल लेगी? जिन पर १०-१० गिरफ़्तारी के वारण्ट हैं, ऐसे छात्र-नेता तो पुलिस के साथ दारू पीते हैं। नेता को गिरफ़्तार करके छात्र-हुल्लड़ की मुसीबत पुलिस क्यों बुलाये? डर से डरपोक लड़के नकल न करें, इतना हो सकता है।
       साधारण गरीब और निम्न-मध्यवर्ग के लड़के पढ़ना चाहते हैं, ईमानदारी से परीक्षा भी देना चाहते हैं। वे जल्दी डिग्री लेकर नौकरी करना चाहते हैं, जिससे परिवार की गर्दिश कम कर सकें।
       माँ-बाप अपना पेट काटकर उनके लिए फीस और पुस्तकों का इन्तजाम करते हैं। छोटे भाई-बहन फटे कपड़े पहनते हैं— बड़े भैया की पढ़ाई और नौकरी के लिए। ऐसे लड़के सौ में नब्बे होते हैं। मगर इनके दुश्मन होते हैं, बिना उद्देश्य,बिना ध्येय के हुल्लड़बाज छात्र-नेता, जो दस-पन्द्रह साल विश्वविद्यालयों और कॉलेज में आतंक पैदा कर हरामखोरी कर जिन्दा रहते हैं। ये सम्पन्न घरों के या सामन्ती अपराधी पारिवारिक संस्कार के, या जीवन में अपराध को ही धन्धा बनाने वाले होते हैं नकल यही करते और करवाते हैं।
       इनकी दुर्गति भी होती है क्षणिक, जब किसी कठोर पुलिस वाले से पाला पड़ जाता है। इधर एक विश्वविद्यालय के २-३ कॉलेजों में पुलिस की निगरानी में परीक्षा होती है। पुलिस थानेदार इन रंगदारों से कह देता है— सालो, खिड़की से बाहर झाँका कि कनपटी फट जायेगी। परीक्षा हॉल से किसी बहाने ऊधम करके बाहर निकले तो इतने डण्डे पड़ेंगे कि दोनों टाँगें टूट जायँगी। तो परीक्षा शान्ति से हो जाती है। बस पेपर निकालने का काम कन्स्टेबलों को और जाँचने का काम हवलदारों को दे दिया जाय, तो शिक्षा-व्यवस्था ठीक हो जायगी।
       आम अच्छे लड़के भी नकल क्यों करते हैं? एक इस कारण कि बहुत अध्यापक पढ़ाते नहीं हैं। क्लास हे नहीं लेते। इन अध्यापकों के लिए भी दण्ड की व्यवस्था की जाय। फिर भला लड़का भी सोचता है कि दूसरे कई नकल कर हैं, उनका ऊँचा स्थान हो जायेगा और क्लास नहीं पाऊँगा। तीसरा कारण है नकल सर्वव्यापी वातावरण। उसे बुरा नहीं माना जाना।
       मूल है— बेकारी की समस्या! सारी बुराइयों की जड़ है बेकारी की सम्भावना। अगर शिक्षा की निश्चित योजना और उद्देश्य हो, अगर डिग्री मिलते ही युवक को नौकरी मिलना तय हो, तो लड़के मन लगाकर पढ़ेंगे और ईमानदारी से परीक्षा देंगे। अभी बहाने बनाकर परीक्षायें टलवाते हैं। पास होने पर नौकरी पक्की हो तो वे हाथ जोड़कर कहेंगे—सर, दो महीने पहले ही परीक्षा ले लीजिये, ताकि हम जल्दी नौकरी पर चलें। बिना बेकारी खत्म किये ये कोई समस्याएँ हल नहीं होंगी।
       सरकारों ने छात्रों के लिए तो दण्ड विधान कर दिया। मगर गुरुओं के लिए? किसी चाणक्य या मनु से गुरु के लिए भी दण्ड-विधान बनवा लेते। जो मोटा वेतन लेते हैं, पर पढ़ाते नहीं। जो पक्षपात करते हैं, जो धनियों से पैसा लेकर पहला दर्ज़ा देते हैं, जो गुरुपत्नी के लिए सोने की चेन लेकर डॉक्टरेट देते हैं, जो गरीब आदिवासी छात्रों को ८-८ महीने स्कॉलरशिप नहीं लेने देकर भूखा मारते हैं जो शोधछात्रों की फेलोशिप आधी खुद खा जाते हैं, जो  द्वेष के मारे मेधावी तरुणों की जिन्दगी बरबाद करते हैं। इनकी भी नाक-कान काटने, आँख फोड़ने जीभ काटने का दण्ड-विधान होना चाहिए। बहरहाल, हम तो पाँच हजार सालों से मनुष्य का मांस खा रहे हैं। जिन्होने उसे नहीं चखा है, उन्हे बचाने की कोशिश करें। मेरा एक ही प्रश्न है— जब सत्ताधारी और नेता तथा बड़े लोग जानते हैं, मानते हैं और जिनके पास जीवन से प्रमाणित यह सत्य है कि दुराचरण से ही सुख सफलता और सम्पत्ति मिलते हैं तो सदाचार सिखाकर इन छात्रों की जिन्दगी क्यों बरबाद करने पर तुले हैं?