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11 December, 2010

A hindi story of a great writer

भीष्म साहनी की कहानी
साग-मीट
        साग-मीट बनाना क्या मुश्किल है। आज शाम खाना यहीं खाकर जाओ, मैं तुम्हारे सामने बनवाऊँगी, सीख भी लेना और खा भी लेना । रुकोगी न? इन्हे साग-मीट खाना बहुत पसन्द है। जब कभी दोस्तों का खाना करते हैं, तो साग-मीट जरूर बनवाते हैं । हाय, साग-मीट तो जग्गा बनाता था,वह होता तो मैं उससे साग-मीट बनवाकर तुम्हे खिलाती । उसके हाथ में बहुत रस था। वह उसमें दही डालता, लहसुन डालता, जाने क्या- क्या डालता। बड़े शौक से बनाता था। मेरे तो तीन-तीन डब्बे घी के महीने में निकल जाते हैं। नौकरों के लिए डालडा रखा हुआ है, पर कौन जाने, मुए हमें डालडा खिलाते हों और खुद अच्छा घी हड़प जाते हों । आज के जमाने में किसी का एतबार नहीं किया जा सकता । मैं ताले तो नहीं लगा सकती । मुझसे ताले नहीं लगते । मैं कहती हूँ, खाते हैं तो खाएँ । कितना खा लेंगे । मुझसे अपनी जान नहीं सम्भाली जाती, अब ताले कौन लगाये ? यह मथरा सात रोटियाँ सवेरे और सात रोटियाँ गिनकर शाम को खाता है । बीच में इसे चाय भी चाहिए, और घर में जो मिठाई हो, वह भी दो । पर मैं कहती हूँ टिका हुआ तो है, आज किसी नौकर का भरोसा थोड़े ही है । किसी भी वक्त उठकर कह देते हैं – मैं जा रहा हूँ ।
        ये भी मुझे यही कहते हैं, कुत्ते के मुँह में हड्डी दिये रहो, तो नहीं भूँकेगा । सत्तर रुपये पर इसे रखा था, अब सौ लेता है । फिर भी इसके तेवर चढ़े रहते हैं । पर जग्गा नेक आदमी था । बड़ा नमक हलाल । वह नौकर थोड़े ही था, वह तो घर का आदमी था । वह इन्हे बहुत मानता था । एक बार ये कुछ कह दें, तो मजाल है, वह पूरा न करे । बड़ा वफादार था । ये भी तो नौकर को नौकर नहीं समझते । घर का आदमी समझते हैं । जब कभी सौ- पचास की जरूरत होती, झट से निकालकर दे देते । कहीं कोई लिखत नहीं, कोई हिसाब नहीं ।
       जग्गा बीवी ब्याह कर लाया, तो दो जोड़े और एक गर्म कोट सिलवाकर दिया । मैं इनसे कहूँ— जी, क्यों पैसे लुटाते हो । नौकर किसी के अपने नहीं होते । इसी को पाँच रुपये कहीं से ज्यादा मिल जाये तो यह पीठ फेर लेगा । ये कहते, तू अपना काम देख, पानी निकालने से कुएँ खाली नहीं होते । यह हमें साग-मीट खिलाता रहे, मुझसे जो माँगेगा, दूँगा । इस जैसा बावर्ची तो शहर भर में नहीं होगा ।
         मुझे वह दिन याद है, जब जग्गे को लेकर आये थे । बाहर से ही आवाज  लगाई, ले सुमित्रा, तेरे लिए नौकर लाया हूँ । जब भी ये तुझसे कहे, इसे चाय के साथ खाने के लिए जरूर दे दिया कर । एक मठरी ज्यादा दे देने से तेरा नुकसान नहीं होगा । इसे घर से मोह पड़ गया, तो वर्षों तक मेरे साथ बना रहेगा । तेरा सारा काम कर दिया करेगा।
        और जग्गा भी ऐसा, जैसे जंगल से हिरन पकड़ लाए हों । बड़ी-बड़ी उसकी आँखें, हिरन की तरह हैरान-सा देखता रहता । वही बात हुई । जग्गे को मोह हो गया । पर यह छोटी उम्र में होता है । बड़े-बड़े मुस्टण्डे नौकर, जो सड़कों पर घूमते रहते हैं, इन्हे क्या मोह होगा । बच्चे कोमल होते हैं, जैसा सिखाओ, सीख जाते हैं । जानवर सीख जाते हैं, तो ये क्यों न सीखेंगे ? इन्हे बस में करने के बड़े ढंग आते हैं ।
       तुम्हे जैकी याद है ना ? हाय, तुम जैकी को भूल गये ? जैकी कुत्ता, जिसे ये एक दोस्त के घर से उठाकर लाये थे, सभी को भूँकता फिरता था । पर इन्होने उसे ऐसा हाथ किया कि इन्ही के कदमों में चक्कर काटता फिरता था । उसे भी ऐसा ही मोह पड़ गया था । इनके साथ, मैं तुम्हे क्या बताऊँ दफ्तर से इनके लौटने का वक्त होता, तो जैकी के कान खड़े हो जाते । बाहर का सारा वक्त दसियों मोटरें दौड़ती रहतीं , पर जिस वक्त इनकी मोटर आती, तो उसे झट से पता चल जाता और भागकर बाहर पहुँच जाता । सीधा गेट पर जा पहुँचता । वहीं एक दिन गाड़ी के नीचे कुचला गया । यह मोह बहुत बुरी चीज है ।
       ये काँटे कहाँ से बनवाये हैं ? बड़े खूबसूरत हैं । हीरे कितने के आये ? सच्चे हैं ना ? आजकल हर चीज को आग लगी हुई है । मैनें यह नाक की लौंग बनवायी, इतना छोटा-सा  हीरा इसमें लगा है, पूरे सात सौ खुल गये । अब तो मुझे पहनते डर लगता है, जब जग्गा था तो मेरी जेवरों की पिटारी भी बाहर पड़ी रहती थी । कभी दो पैसे भी इधर-उधर नहीं हुए । मैं ऐसी भुलक्कड़ हूँ, कभी चेन गुसलखाने में रह जाती है, कभी तिपाई पर रह जाती, जग्ग उठाकर दे देता पर अब तो ऐसे नौकर आये हैं, हरे राम मैनें सारे जेवर उठाकर बैंक में रख दिये हैं । मथुरा से पहले एक नौकर था, मंसा नाम का । ऊपर से बड़ा शरीफ था । लगता, उसके मुँह में जबान ही नहीं है । पर एक दिन मैं पिछवाड़े की तरफ से घर आ रही थी, तो क्या देखती हूँ, मंसा छत पर खड़ा है और गली में खड़े आदमी को ऊपर से एक-एक करके कपड़े फेंक रहा है, ,मुझे देखते ही दोनों चंपत हो गये । मंसा गली में कूद गया और वहीं से भाग गया । आजकल नौकर रखने का जमाना नहीं है । मैं तो घर से बाहर निकल जाऊँ, तो डर लगा रहता है कि पीछे नौकर कहीं घर की सफाई ही न कर जाएँ । जग्गा था तो मुझे भी कोई चिन्ता नहीं होती थी । वह हाथ का बहुत साफ था ।
       तू कुछ खा भी ना । तू तो कुछ भी नहीं खाती । गर्म चाय मँगवाऊँ ? इसे छोड़ दे, यह ठण्डी पड़ गयी होगी, यह केक का टुकड़ा ले । बाजारी है पर बहुत अच्छा है । केक तो बनाती है कमला की सास, एक-से-एक बढ़िया । कभी उनमें चाकलेट डालती है, कभी कुछ, कभी कुछ । ‘वेंगर’ से लेने जाओ, तो जो केक मुए अठारह रुपये में बेचते हैं, कमला की सास पाँच रुपये में बना लेती है। बीच में अण्डे भी, दूध-चीनी भी, किशमिश और बादाम भी, और न जाने क्या-क्या। मुझसे अपनी जान नहीं सँभाली जाती, मैं क्या करूँगी । केक जग्गा भी बहुत अच्छे बनाता था। पर उसकी किस्मत खोटी थी, नहीं तो आज तुम्हे उसी के हाथ का बना केक खिलाती । हर तीसरे-चौथे दिन केक बनाता था, पर खुद कभी नहीं खाता था । मैं उससे कहूँ— तू भी एक टुकड़ा खा ले, पर नहीं । वह कहता, बीवी जी, यहाँ केक खाऊँगा तो बाहर मुझे केक कौन देगा?
          किसे मालूम था कि यों चला जाएगा । मैं तो अब भी कहती हूँ, बक देता तो बच जाता । पर अपनी-अपनी किस्मत है, कोई क्या करे ! इनके सामने उसने मुँह ही नहीं खोला । इन्हे बहुत मानता था । बोला इसलिए नहीं कि इनके दिल को ठेस पहुँचेगी । और क्या बात हो सकती थी ? अब अन्दर की बात इन्हे क्या मालूम ? वह बताएँ भी तो पता चले । वह तो मैं जानती थी । उसके मन में क्या था, उसने हवा तक नहीं लगने दी ।
         धीरे बोल.....दोपहर के वक्त किसी को क्या मालूम, सोया आदमी तो मोये बराबर होता है, हमारे घर में तो उस वक्त चिड़ी नहीं फड़कती । किसी को क्या खबर, घर के पिछवाड़े क्या हो रहा है ? मुझसे अपनी जान नहीं सँभाली जाती । भगवान झूठ न बुलवाये, एक दिन दोपहर को मैं उठी, गुसलखाने की तरफ जा रही थी, जब मुझे खटका-सा हुआ । मुझे लगा, जैसे कोई जग्गा की कोठरी तरफ जा रहा है । मुझे क्या खबर, कौन है, कौन नहीं है । फिर भी मर अन्दर से फुरनी फुरी— इस वक्त यहाँ कौन हो सकता है? जग्गे को तो इस वक्त ये दफ़्तर बुला लेते हैं ।
जग्गा तो इस वक्त दफ्तर में काम करता है, इनके लिए चाय-पाना बनाता है, चपरासीगिरी करता है । ये कहते थे कि घर के लिए कोई दूसरा नौकर मिल जाये तो जग्गे को दफ़्तर में रख लूँगा, फिर इस वक्त यहाँ कौन हो सकता है ?
            मैने खिड़की में से झाँककर देखा । हाय, यह तो विक्की है, मेरा देवर । काला सूट पहने, दबे पाँव चला जा रहा था, सीधे जग्गा की कोठरी के अंदर चला गया । मेरा दिल धक्क से रह गया । हाय मना, यह जग्गे की कोठरी में क्या करने गया है ? फिर मैनें सोचा, किसी काम से आया होगा । पर जग्गे की कोठरी में उसका क्या काम ? और यह इतने दबे पाँव जा रहा है ? मन में आया, इसी से जाकर पूछूँ । पर मुझसे मेरी जान नहीं सँभाली जाती । मैं लौटकर फिर पलंग पर पड़ रही, पर ध्यान मेरा बार-बार उसी तरफ जाये । भलेमानस घरों ऐसे काम नहीं करते । जो ऐसे काम करने हैं, तो शादी क्यों नहीं कर लेता ? किसी का घर क्यों खराब करता है ?
            तुमने जग्गे की घरवाली देखी थी ना ? बड़ी भोली-सी लड़की थी, इतनी गोरी, हाथ लगाये मैली होती थी । यह कलमुँहा किसी बहाने से दफ्तर से भाग आता था और उसकी कोठरी में जा घुसता था । उस दिन मेरी नजर पड़ गयी । असील-सी गाँव की लड़की, सहमी-सहमी-सी इस चंट के आगे क्या बोलती ?
            धीरे बोल.....इनके घर में बदचलनी बहुत है । ये ही एक शरीफ हैं, इनके चाचा ने भी दो-दो रखेल रखी थी, इनकी चाची, बुढ़िया, दोपहर को अपने एक नौकर से पाँव दबवाती थी। मैनें खुद देखा है, खाना खाने के बाद अपने कमरे में घुस जाती और पीछे-पीछे मुस्टण्डा शंकर पहुँच जाता ।
            अब ऐसी बातें छिपा तो नहीं रह सकतीं । एक दिन जग्गे ने ही देख लिया । इन्होने थर्मस मँगवाने के लिए जग्गे को घर भेजा । मैनें उसे थर्मस दी और वह अपनी कोठरी की तरफ चला गया । अचानक मैनें खिड़की से बाहर झाँककर देखा । विक्की, वही काला सूट पहने जग्गे की कोठरी में से बाहर निकल रहा था । ‘विक्की बाबू.....!’ जग्गे ने कहा । फिर उसका मुँह जैसे बन्द हो गया । फटी-फटी आँखों से उसे देखता रह गया । उधर विक्की, बिना उसकी ओर देखे, चुपचाप वहाँ से निकल गया । मेरा दिल धक्-धक् करने लगा । मैनें कहा, अब इसकी घरवाली की खैर नहीं । यह उसे धुन देगा । क्या मालूम, जान से ही मार डाले । इन लोगों का कुछ पता थोड़े ही लगता है, पर कोठरी के अन्दर से न हूँ, न हाँ ।
           मैं नहीं जानती, जग्गा कितनी देर तक अन्दर रहा । उसने अपनी बीवी से कुछ कहा या नहीं कहा । मैं तो जाकर लेट गयी, पर मैनें मन ही मन कहा कि आज मैं इनसे बात करूँगी । या तो जग्गे को चलता करें, या उससे कहें कि अपनी घरवाली को गाँव छोड़ आये । यहाँ इसका रहना ठीक नहीं ।
          लेटे-लेटे भी मेरे कान कोठरी की ओर लगे रहे । अभी वहाँ से चीखने-चिल्लाने, रोने- पीटने की आवाज आएगी । पर वहाँ बिल्कुल चुप ! मैनें मन-ही-मन कहा, ऐसा शरीफ आदमी भी किस काम का जो अपनी घरवाली को काबू में नहीं रख सकता । दो लप्पड़ उसके मुँह पर लगाता, वह अपने आप सीधे रास्ते पर आ जाती । दस तरीके हैं औरत को सीधे रास्ते पर लाने के । पर यहाँ न हूँ, न हाँ ।
          पलंग पर लेटे-लेटे ही मुझे ऐसी घबराहट हुई कि मुझे बाथरूम जाने की हाजत हो आयी । मुझे मुई कब्जी भी तो रहती है ना । रोज रात को ईसबगोल की भूसी दूध में डालकर लेती हूँ, तब जाकर सुबह पेट साफ होता है । कभी-कभी तो जान इतना घबराती है कि क्या बताऊँ । एक बार पूरे पाँच दिन कब्ज रही । ये मजाक करते थे । अब बाथरूम जाओगे तो बाथरूम साफ करना मुश्किल हो जाएगा । हाय, अब तो हँसा भी नहीं जाता । हँसती हूँ तो साँस फूलने लगती है । मुझे बावासीर की शिकायत भी तो रहती है ना । यहाँ एक मुसीबत थोड़े ही है। एक नहीं बीस दवाइयाँ खा चुकी हूँ ।
         डॉक्टर बोलता है, चला-फिरा करो । अब इस शरीर के साथ कौन चल-फिर सकता है? थोड़ा-सा भी चलूँ, तो सांस फूलने लगती है । डॉक्टर कहता है, मिठाई मत खाया करो, पर मुझसे हाथ रोआ ही नहीं जाता । घर में दो-तीन डब्बे मिठाई के हर वक्त मौजूद रहते हैं, पर बर्फी का टुकड़ा मुँह में डालने की देर है कि गुड़-गुड़ होने लगती है । डॉक्टर मुआ बार-बार कहता है, मिठाई खाना छोड़ दो । पर एक टुकड़ा भी मुँह में न डालूँ, तो फिर जंगलों में जा बैठूँ, दुनिया से फिर क्या लेना है ? मैं डॉक्टर से कहती हूँ, मुझे बैठे-बैठे ही ठीक कर दो । न मेरी मिठाई बन्द करो, न मुझे घूमने को कहो । अगर मुझे सैर करके ही दुरुस्त होना है, तो मुझे तुम्हारी क्या जरूरत है ? जब आते हो, पच्चास-पच्चास रुपये ले जाते हो । हम तुम्हे इतने पैसे भी दें, फिर भी तुम ठीक नहीं कर सको, तो फिर फीस किस बात की लेते हो ? हम पांडी-मजूर थोड़े ही हैं कि घूमते फिरें ।
           मैनें डाँटकर कहा, तो डॉक्टर अपने आप सीधा हो गया । कहने लगा, कोई बात नहीं, खाना खाने के बाद दो बड़े चम्मच इस दवाई को पी लिया करो । मैनें कहा, अब आया न सीधे रास्ते पर ! अब दो चम्मच रोज पी लेती हूँ । डकार आनी तो बन्द हो गयी है, पर कोई बात इधर-उधर की हो जाय और मन घबराने लगे, तो बाथरूम की हाजत होने लगती है । उस दिन क्लब में गयी, तो हरचरन की बीवी औरतों पर बड़ा रोआब गाँठ रही थी । कह रही थी मैं सात गोलियाँ रोज खाती हूँ मैंने सुना, पर चुप रही । मैंने कहा, यह भी कोई ऐंठने की बात है ? भगवान अहंकार न बुलवाए, पन्द्रह-पन्द्रह गोलियाँ भी रोज खायीं हैं, पर बाहर जाकर ढिंढोरा नहीं पीटा कि दवाई की पन्द्रह गोलियाँ रोज खाते हैं । डॉक्टर घर का पक्का रखा है, तीन सौ रुपया बँधा-बँधाया उसे हर महीने देते हैं, घर में कोई बीमार हो या न हो, अभी भी खाने वाली मेज पर जा के देखो, कुछ नहीं तो दस दवाई की शीशियाँ वहाँ पर रखी होंगी, कुछ ताकत की गोलियाँ, कुछ हाजमे की, और तरह-तरह की । जग्गे को सब मालूम था कि कौन सी गोली मुझे किस वक्त चाहिए । अपने आप लाकर दे दिया करता था । वह गया, तो दवाइयों का सारा सिलसिला ही खराब हो गया । .......तुम कुछ लो ना, तुम तो कुछ भी नहीं खा रही हो ।
           उस दिन शाम को जब ये घर आए, तो आते ही कहने लगे— कहाँ है जग्गा ? उससे कहो, पाँच आदमी रात को खाना खाने आएँगे, बढ़िया तरकारियाँ बनाए और साग-मीट बनाए । जग्गा आया, तो गुमसुम इनके सामने आकर खड़ा हो गया । चेहरा ऐसा पीला, जैसे मुर्दे का होता है । इन्होने बड़े ला़ड़ से पूँछा— क्यों जग्गे, क्या बात है, इतना चुप क्यों है ? क्या गाँव से कोई बुरी खबर आयी है ? पर जग्गा चुप, न हूँ न हाँ । इन्हे कहता भी तो क्या ? इनसे कैसे कहता कि आपका भाई मेरी घरवाली से मुँह काला कर रहा है । कोई गैरत भी तो होती है । इनके आगे तो वह आँख उठाकर नहीं देखता था । पर इनकी तबीयत को तो तुम जानती हो, बिगड़ जाएँ, तो सख्त बिगड़ते हैं, आगा-पीछा नहीं देखते । और तो और , मुझे भी नौकरों के सामने बेइज्जत कर देते हैं ।
          जब जग्गा कुछ नहीं बोला, तो इन्हे गुस्सा आ गया । जग्गा पत्थर की मूरत बना खड़ा था । जाने उसके मन में क्या था । बोल देता तो अपने दिल का गुबार निकाल लेता । मगर चुप ।
          ये उसे डाँटने लगे, तो मैंने रोक दिया । मैंने कहा, जी मेहमान आने वाले हैं, अभी सारा काम पड़ा है, जा जग्गा, तू रसोई में चल । वह उसी तरह गुमसुम रसोईघर में चला गया । थोड़ी देर बाद मैं रसोईघर में गयी कि खाने-वाने का देखूँ, तो वह वैसे का वैसा खड़ा था । रसोईघर के बीचोबीच पत्थर की मूरत बना हुआ था । मैंने कहा, इसकी बुद्धि पथरा गयी है, यह कोई काम नहीं कर पायेगा । मैं उन्ही कदमों लौट आयी । मैंने इनसे कहा, जी , इसे तो कुछ हो गया है । यह बोलता नहीं, मुझे तो डर लगता है । तुम बाहर से खाना मँगवा लो और इसे आज के दिन छुट्टी दे दो ।
          मैंने कहा तो ये खुद उठकर रसोईघर की तरफ चले गये । और बजाय उसे छुट्टी देने के, उसे फटकारने लगे । मैं थर-थर काँपने लगी । क्या मालूम, जग्गे ने कोई छुरा नेफे में छुपा रखा हो । इन लोगों का क्या भरोसा ? ‘बदजात बोलता क्यों नहीं ?’
ये ऐसे चिल्लाए, जैसा मैंने कभी इन्हे चिल्लाते नहीं सुना । मेरा तो ऊपर का सांस ऊपर और नीचे का नीचे । मैं करूँ तो क्या करूँ ? मैं भागकर इनके पास गई । मैंने सोचा, इन्हे खींचकर बाहर ले आऊँगी, परैन्होने मेरा हाथ झटक दिया । ‘कमीने’ मैं बार-बार पूँछ रहा हूँ, बता क्या बात है, और तू बोलता तक नहीं । तेरी जबान घिसती है, मुझे जवाब देन में ? निकल जा यहाँ से, अभी चला जा, मेरी आँखों से दूर हो जा ।’ और जग्गे को कान से पकड़कर रसोई से बाहर ले आए । मैं इन्हे समझाने लगी, कुछ न कहो जी, घण्टे-दो-घण्टे में मेहमान आने वाले हैं, और अभी तक कुछ नहीं बना । यह चला जाएगा, तो खाना कौन बनाएगा । जा जग्गा, जा, तू रसोईघर में जा । और मैं इन्हे जैसे-तैसे खींच लायी ।
       रात को जब मेहमान चले गये......हाँ जी, बनाया जग्गे ने, सारा खाना बनाया । बड़ा अच्छा खाना बनाया, पर रहा गुमसुम, मुँह से एक लफ़्ज नहीं बोला । खाना खाते-खाते इनका दिल भी पसीज गया । मेहमानों के सामने ही उससे कहने लगे – ‘जग्गे ! जा तेरी दस रुपये तरक्की ! रायसाहब कहते हैं, साग-मीट बहुत अच्छा बना है, शाबाश ! जा तेरा कसूर माफ किया ।’ ये देने पर आयें, तो मुँह माँगी मुराद पूरी करते हैं इनका दिल तो समन्दर है ।
        रातको मुझसे नहीं रहा गया । मैंने कहा, जी, विक्की बड़ा हो गया है, अब इसकी शादी की फिक्र करो । तो कहने लगे— ‘तुम्हे इसकी शादी की क्या पड़ी है, अभी इसकी उम्र ही क्या है, अभी तो इसके मुँह पर से दूध भी नहीं सूखा ।’ मैंने कहा, जी, शादी नहीं करोगे तो खूँटा तुड़ाये साँड़ की तरह जगह-जगह् मुँह मारेगा । मैंने गोल-मोल शब्दों में कहा । पर विक्की से उन्हे बहुत प्यार है, इसे अपने बच्चे की तरह इन्होने पाला है । उसकी बुराई ये नहीं सुन सकते । मैंने फिर से उसकी शादी की बात चलाई, तो कहने लगे— ‘मार ले जितना मुँह मारता है, अभी उसकी उम्र ही क्या है, दो दिन हँस खेल ले, ब्याह के बधन में तो एक दिन बँध ही जाएगा ।’
          मैंने कहा, जी, जवान लड़का है, गलत रास्ते पर भी पड़ सकता है । इसका तो जितना जल्दी हो ब्याह कर दो । इस पर कहने लगे— ‘अभी तो इसने पढ़ाई भी नहीं पूरी की । कुछ नहीं तो तीस-चालीस हजार इसकी पढ़ाई पर खर्च कर चुका हूँ । इसकी शादी करूँ, तो कम-से-कम यह रकम तो वसूल हो । और अभी इसने बी.ए. पास भी नहीं किया ।’
         मर्द लोग बड़े समझदार होते हैं, इन्हे तो दस बातों का ध्यान रहता है । अब मैं और आगे क्या कहती, मैने इतना भर कहा, आप इसके कान खींचते रहा कीजिये, जवानी बड़ी मस्तानी होती है । इस पर ये बिगड़ उठे— ‘तुम्हे कुछ मालूम है क्या ? बोलती क्यों नहीं हो ?’ ये इतनी रुखाई से बोले कि मैं चुप हो गयी । मैने सोचा, फिर कभी मौका मिलेगा, तो बात करूँगी, इन्हे आराम से समझाऊँगी, पर मुझे क्या मालूम था कि दूसरे ही दिन गुल खिलने वाला है ।
         दूसरे दिन सुबह, यही आठ-साढ़े आठ का वक्त होगा, मैं पिछले बरामदे में बैठी बाल सुखा रही थी । वहाँ धूप अच्छी पड़ती है । मैनें सोचा, बाल सूख जाएँ तो उन्हे काला करूँ । जग्गे की घरवाली बड़े सँवारकर मेरे बाल बनाती थी । मैनें सोचा, बाल सूख जाएँ तो उसे बुला लूँगी। यही साढ़े-आठ आठ का वक्त होगा । उसी वक्त फ्रंटियर मेल आती है । घर के पिछवाड़े थोड़ी दूर [अर ही तो रेलवे लाइन है । अगर गाड़ियों को सिगनल नहीं मिले, तो यहीं रुक जाती हैं, फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं । पर फ्रंटियर मेल यहाँ नहीं रुकती । वही एक गाड़ी है जो यहाँ नहीं खड़ी होती ।
         जग्गे ने पहले से ही सब कुछ सोच रखा होगा । उधर से गाड़ी आई तो जग्गा अपनी कोठरी में से बाहर निकला । मैंने कहा, जग्गे, सुरस्तां को मेरे पास भेज दे । पर मुझे लगा, जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं । वह भागकर पिछवाड़े की दीवार फाँद गया और रेलवे लाइन की ढलान चढ़ने लगा । यह सब पलक मारते हो गया । उसने मुड़कर पीछे देखा ही नहीं, मेरी भी अक्कल मारी गयी, मुझे सूझा ही नहीं कि वह क्यों भागा जा रहा है । मैंने सोचा, किसी काम से जा रहा होगा । गाड़ी का तो मुझे खयाल ही नहीं आया । वरना मैं उसे रोक नहीं देती ? ढलान चढ़ने के बाद मैंने नहीं देखा कि वह कहाँ गया है, किस तरह गया !
         झूठ क्यों बोलूँ, शाम का वक्त है । बस, फिर मुझे नजर नहीं आया । मुझे तो खटका तब भी नहीं हुआ, जब गाड़ी धम-धम करती आई और कुछ ही देर बाद पहिये घसीटती रुक गई । पहिये घिसटने की आवाज आती है ना, जैसे किसी ने चेन खींची हो। पर मैंने खयाल नहीं किया, यहाँ रोज गाड़ियाँ रुकती हैं । मैंने सोचा, किसी ने चेन खींची होगी । थोड़ी देर में माली भागा-भागा आया । कहने लगा, कोई हादसा हो गया है, और वह भी पिछवाड़े की दीवार फाँदकर ढलान चढ़ने लगा । मुझे फिर भी शक नहीं हुआ । थोड़ी देर बाद पड़ोस वाले नौकरने चिल्लाकर कहा— ‘जग्गा मारा गया है । जग्गा गाड़ी के नीचे कुचला गया है ।’
       मेरा दिल बुरी तरह से धक्-धक् करने लगा । उसके साथ उंस थी ना । वह तो जैसे घर का आदमी था, कोई पराया थोड़े ही था ये तो उसके साथ बेटे जैसा सुलूक करते थे । वह भी इन्हे बाप की तरह मानता था । यही चीज उसे अंदर ही अंदर खा गई । मैं तो अब भी कहती हूँ, अगर जग्गा बोल पड़ता, तो बच जाता । ये जरूर कोई-न-कोई रास्ता ढूंढ निकालते । ये सब तरकीबें जानते हैं । बड़े समझदार हैं । पर वह बोला ही नहीं ।
     वह दिन तो ऐसा बुरा बीता, ऐसा बुरा कि तुम्हे क्या बताऊँ । बार-बार टेलीफोन आए, तीन बार तो पुलिस का इंसपेक्टर आया । बार-बार इन्हे बुलाता, बार–बार कोठरी में झाँककर देखता । अंदर बैठी थी वह कुलच्छणी ! मौका देखने के बहाने इंसपेक्टर बार-बार अंदर जाए । मर्द तो भेड़िए की तरह औरत को घूरते हैं ना । और वह अंदर बेहोश पड़ी थी । उसे बार-बर गश आ रहे थे । अब मैं किस काम की ! मुझसे अपने जान नहीं सँभाली जाती । एक दो बार मन में आया भी कि जाऊँ, सुरस्तां को देख आऊँ । पर इन्होने मना कर दिया  ये कहने लगे, फौजदारी का मामला है, इससे दूर ही रहो । जब तक पुलिस अपनी कार्रवही न कर ले, कोठरी में कदम नहीं रखना । मर्द समझदार होते हैं ना, उन्होने दुनिया दुनिया देखे होती है । पुलिस ने इनसे पूँछा, तो इन्होने कहा, वह पिछले दिन से ही पगलाया-पगलाया लग रह था । मियाँ-बीवे की आपस में कोई बत हुई हो तो हम नहीं जानते । नौकरों की अंदर की बातों से मालिकों का क्या काम ? एक बारा अंदर आए, तो मैनें इनसे कहा, जी, तुम विकी को कहीं बाह्र भेज दो । मैं कहूँ, इन्हे मालूम नहीं, पर आसपास के किसी आदमी को मालूम हुआ तो बखेड़ा खड़ा हो जाएगा । पर इन्होने समझदारी की । विक्की को बाहर नहीं भेजा । मर्द लोग समझदार होते हैं, विक्की लापता हो जाता, तो पुलिस को शक पड़ सकता था, ना ।
          एक मठरी और लो ! लो ना ! तुमने तो कुछ खाया ही नहीं । खाओगी तो सेहत बनी रहेगी, बस मुटियाना नहीं । मेरी तरह मोटी नहीं होना, मोटी देह किस काम की । तुम आ गई, तो घण्टा-आध-घण्टा मन बहल गया । कभी-कभी आ जाया करो ना। तुम दूर तो नहीं रहती हो । कहो तो मोटर भेज दिया करूँ ? अकेले में तो घर भाँय-भाँय करता है । ये तो दफ्तर से आते हैं तो सीधे ब्रिज खेलने चले जाते हैं । जब तक तीन-चार घण्टे ब्रिज न खेल लें, इन्हे चैन नहीं मिलता । यह ताश तो मेरी ऐसी शौकन आई है, इस घर में जब से ब्याही आई हूँ, यह मेरा पीछा नहीं छोड़ती । रोज शाम को इन्हे उड़ा ले जाती है । हाय, अब तो हँस भी नहीं सकती । हँसती हूँ, तो साँस फूलने लगता है । छाती में शाँ-शाँ होती है । मैं इनसे कहूँ, तुम ताश बहुत ना खेला करो जी । अपनी सेहत का भी कुछ खयाल किया करो । जानती हो, क्या कहते है ? कहने लगे, इसी ताश के ही तुफैल ही तो मेरे दस काम सँवरते हैं । पुलिस का बड़ा अफसर ताश का साथी था, तभी जग्गे वाला मामला रफा-दफा हो गया, वरना घर में से कोई खुदकुशी करे, तो पुलिस वाले क्या घरवाले को नहीं परेशान करेंगे ? मैंने कहा, ठीक है, मर्द लोग जानें, हम क्या जानें । बस वही दिन हमारा बुरा गुजरा । इनको दिन के वक्त सोने की आदत है, थोड़ा सो न लें, तो बदन भारी-भारी महसूस करने लगता है, पर कोई सोने दे तो ! उस दिन वह भी नहीं हुआ । सोने के लिए लेटे, तो कभी टेलीफोन की घण्टी बजने लगे, कभी कोई सरकारी आदमी आ जाए । पर दूसरे दिन से चैन हो गया । फिर कोई नहीं आया ।
          जब मामला रफा-दफा हो गया, एक दिन मैनें विक्की की सारी करतूत इन्हे बता दी । ये कहने लगे— मुझे तो पहले दिन से मालूम था । मैं हक्की-बक्की इनके मुँह की ओर देखने लगी । जवानी में सभी बेवकूफियाँ करते हैं, इसने कर ली तो क्या हुआ । मैनें कहा— जी, विक्की को समझा तो दिया होता । कहने लगे, कोई बेसवा के पास तो नहीं गया, कोई बीमारी तो नहीं ले आया, हो गयी बात जो होनी थी, आगे के लिए इसे खुद कान हो जाएँगे । मैनें कहा, जी, पर बात तो अच्छी नहीं ना, ऐसा विक्की को करना तो नहीं चाहिए था ना । विक्की ने ऐसा नहीं किया होत तो जग्गा जान पर तो नहीं खेल जाता ना । तो कहने लगे, तुम क्या चाहती हो, भाई को पुलिस में दे देता ? पर जी, उसने तो जुर्म बहुत बड़ा किया है ना । ये और भी बिगड़ उठे । उसका जुर्म देखता या उसकी जान बचाता ? तुम क्या चाहती हो, उसे काल कोठरी में भिजवा देता ?
         फिर थोड़ी देर बाद धीमे से बोले । मुझे समझाने लगे, अव्वल तो कौन जाने विक्की अपने-आप अंदर गया था, या जग्गे की घरवाली उसे इशारे करती रहती थी । ताली एक हाथ से तो नहीं बजती । औरत बढ़ावा देती है, तभी मर्द बहकता है । लड़की इशारा भी कर दे तो आदमी बौरा जाता है, कोठरी के बाहर पर्दा लगा रहता है । क्या मालूम पर्दे की ओट में उसे इशारे करती रही हो । औरत खुद न चाहती, तो क्या मजाल था कि विक्की उसके कमरे में जाता । ऐसे ही कोई किसी के कमरे में घुस जाता है ? इतनी ही शरीफजादी थी तो अंदर से कमरा बंद करके क्यों नहीं बैठती थी ? अंदर से साँकल लगाकर बैठती । तेरा मर्द बाहर काम पर गया है, तू कोठरी में अकेली है, तू अंदर से कोठर बंद करके बैठ । दरवाजा खोलकर बैठने का तेरा क्या मतलब है ? दिन के वक्त तेरे पास आ सकती थी । उसे किसी ने मना किया था ?
            मैं सुनती रही, मैं भी सोचूँ, किसी के दिल की कौन जानता है, लड़की के दिल में चोर था, या विक्की के दिल में, भगवान् जाने ।
          आखिर में जी, इन्होने सारा मामला सँभाल लिया, इनसे सब संतुष्ट हो गये । इन्हे भगवान ने ऐसी समझदारी दी है, इनकी कोई कसम तक नहीं खाता । सभी इनके सामने हाथ जोड़ते हैं । ये जल्दी घबरा नहीं जाते ना, यही इनकी सबसे बड़ी खूबी है । कोई दूसरा होता तो घबरा जाता । जग्गे का भाई गाँव से आया, बहुत रोया-धोया, उसे इन्होने दो सौ रुपये निकाल कर दे दिए । जग्गे की घरवाली का बाप आया । उसे भी इन्होने पैसे दिए । मैनें इनसे कहा, जी, मामला रफा-दफा हो गया है, अब ये हमारे क्या लगते हैं, तुम पैसे लुटा रहे हो । पर नहीं, ये कहने लगे, जग्गे ने दस साल हमारी सेवा की है । इसे हम कैसे भूल सकते हैं । कहने लगे, सौ-पचास दे दो, तो गरीब का मुँह बंद हो जाता है । ये सबका भला सोचते हैं, किसी का बुरा नहीं सोचते । हर किसी की मदद ही करेंगे ।




  यह जरा घण्टी तो बजाना । मुए जानते भी हैं, रात पड़ गयी है, मगर मजाल है जो अपने-आप बत्ती जलाएँ । बार-बार घण्टी बजानी पड़ती है । कानों में तेल डाले पड़े रहते हैं। अब आई हो तो खाना खाकर जाना । ये जाने कब लौटेंगे । कभी दस बजे आते हैं, कभी खाना खाकर आते हैं । मैं दिनभर बैठे कौए उड़ाती रहती हूँ अब खाना खाये बि   
ना तो मैं तुम्हे जाने नहीं दूँगी । तुम आ गई, तो घड़ी भर दिल बहल गया । हमने अपनी बातें तो अभी तक की ही नहीं, दोनों बैठी बातें करेंगी । तुमने साग-मीट का पूँछा तो मुए जग्गे की बात चल पड़ी । मैं तुम्हे खाना खाये बिना नहीं जाने दूँगी..............