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28 January, 2011

Kenopanishada : Spiritual tradition of India


केनोपनिषद्
येनेरिताः प्रवर्तन्ते प्राणिनः स्वेषु कर्मसु ।

तं वन्दे परमात्मानं स्वात्मानं सर्वदेहिनाम् ॥
यस्य पादांशुसंभूतं विश्वं भाति चराचरम् ।
पूर्णानन्दं गुरुं वन्दे तं पूर्णानन्दविग्रहम् ॥
शान्तिपाठ
ॐ आप्यायन्तु मनाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोतमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरण मस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!
      मेरे अङ्ग पुष्ट हों तथा मेरे वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत, बल और सम्पूर्ण इन्द्रियाँ पुष्ट हों । यह सब उपनिषद्वेद्य ब्रह्म है । मैं ब्रह्म का निराकरण न करूँ । ब्रह्म मेरा निराकरण न करें [अर्थात् मैं ब्रह्म से विमुख न होऊँ और ब्रह्म मेरा परित्याग न करे] इस प्रकार हमारा परस्पर अनिराकरण हो, अनिराकरण हो । उपनिषदों में जो धर्म हैं वे आत्मा (आत्मज्ञान) में लगे हुए मुझमें हों, वे मुझमें हों । त्रिविध ताप की शान्ति हो !!!
प्रथम खण्ड
ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः , केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः ।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोतं क उ देवो युनक्ति ॥१॥
       यह मन किसके द्वारा इच्छित और प्रेरित होकर अपने विषयों में गिरता है ? किससे प्रयुक्त होकर प्रथम (प्रधान) प्राण चलता है ? प्राणी किसके द्वारा इच्छा की हुई यह वाणी बोलते हैं ? और कौन देव चक्षु तथा श्रोत्र को प्रेरित करता है ? ॥१॥
श्रोत्रस्य श्रोतं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य
प्राणश्चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः  प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥२॥

        जो श्रोत्र का श्रोत्र, मन का मन और वाणी का भी वाणी है वही प्राण का प्राण और चक्षु का चक्षु है [ऐसा जानकर] धीर पुरुष संसार से मुक्त होकर इस लोक से जाकर अमर हो जाते हैं ॥२॥
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनु शिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि । इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्व्याचचक्षिरे ॥३॥
          वहाँ (उस ब्रह्म तक) नेत्रेन्द्रिय नहीं जाती, वाणी नहीं जाती, मन नहीं जाता । अतः जिस प्रकार शिष्य को इस ब्रह्म का उपदेश करना चाहिए, वह हम नहीं जानते— वह हमारी समझ में नहीं आता । वह विदित से अन्य ही है तथा अविदित से भी परे है— ऐसा हमने पूर्व— पुरुषों से सुना है, जिन्होने हमारे प्रति उसका व्याख्यान किया था ॥३॥
यद्वाचानभ्युदितं     येन    वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥४॥
           जो वाणी से प्रकाशित नहीं है, किन्त्य् जिससे वाणी प्रकाशित होती है उसी को तू ब्रह्म जान, जिस इस [देशकालावच्छिन्न वस्तु] की लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है ॥४॥
यन्मनसा  न  मनुते  येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥५॥
           जो मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है उसी को ब्रह्म जान । जिस इस [देश- कालावच्छिन्न वस्तु] की लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है ॥५॥
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति ।
तदेव ब्रह्म  त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥६॥
          जिसे कोई नेत्र से नहीं देखता बल्कि जिसकी सहायता से नेत्र [अपने विषयों को] देखते हैं उसी को तू ब्रह्म जान । जिस इस [देशकालावच्छिन्न वस्तु] की लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है ॥६॥
यच्छ्रोत्रेण  न शृणोति  येन श्रोतमिदँश्रुतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥७॥
          जिसे कोई कान से नहीं सुनता बल्कि जिससे श्रोतेन्द्रिय सुनी जाती है उसी को तू ब्रह्म जान । जिस इस [देशकालावच्छिन्न वस्तु] की लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है ॥७॥
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥८॥
          जो नासिकारन्ध्र प्राण के द्वारा विषय नहीं किया जाता, बल्कि जिससे प्राण अपने विषयों की ओर जाता है उसी को तू ब्रह्म जान । जिस इस [देशकालावच्छिन्न वस्तु] की लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है ॥८॥
द्वितीय खण्ड
यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनम् । त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपं यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नुमीमाँस्यमेव ते मन्ये विदितम् ॥१॥
         यदि तू ऐसा मानता है कि ‘मैं अच्छी तरह जानता हूँ’ तो निश्चय ही तू ब्रह्म का थोड़ा-सा रूप ही जानता है । इसका जो रूप तू जानता है और इसका जो रूप देवताओं में विदित है [वह भी अल्प ही है] अतः तेरे लिए ब्रह्म विचारणीय ही है । [तब शिष्य ने एकान्त देश में विचार करने के अनन्तर कहा— ] ‘मैं ब्रह्म को जान गया— ऐसा समझता हूँ’ ॥१॥
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥२॥
        मैं न तो यह मानता हूँ कि ब्रह्म को अच्छी तरह जान गया और न यही समझता हूँ कि उसे नहीं जानता । इसलिए मैं उसे जानता हूँ [ और नहीं भी जानता ] । हम शिष्यों में से जो उसे ‘न तो नहीं जानता हूँ और न जानता ही हूँ’ इस प्रकार जानता है वही जानता है ॥२॥
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ।
अविज्ञातं विजानतां   विज्ञातमविजानताम् ॥३॥
          ब्रह्म जिसको ज्ञात नहीं है उसी को ज्ञात है और जिसको ज्ञात है वह उसे नहीं जानता : क्योंकि वह जानने वालों का बिना जाना हुआ है और न जानने वालों का जाना हुआ है [क्योंकि अन्य वस्तुओं के समान  दृश्य न होने से वह विषय रूप से नहीं जाना जा सकता ] ॥३॥
प्रतिबोधविदितं  मतममृतत्त्वं  हि  विन्दते ।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥४॥
          जो प्रत्येक बोध (बौद्ध प्रतीति)— में प्रत्यगात्मरूप से जाना गया है वही ब्रह्म है— यही उसका ज्ञान है, क्योंकि उस ब्रह्म ज्ञान से अमृत की प्राप्ति होती है । अमृतत्त्व अपने ही से प्राप्त होता है, विद्या से तो अज्ञानान्धकार को निवृत्त करने का सामर्थ्य मिलता है ॥४॥
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥५॥
           यदि इस जन्म में ब्रह्म को जान लिया तब तो ठीक है और यदि उसे इस जन्म में न जाना तब तो बड़ी भारी हानि है । बुद्धिमान लोग उसे समस्त प्राणियों में उपलब्ध करके इस लोक से जाकर (मरकर)
अमर हो जाते हैं ॥५॥
तृतीय खण्ड
यक्षोपाख्यानम्
ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये  देवा  अमहीयन्त ॥१॥
            यह प्रसिद्ध है कि ब्रह्म ने देवताओं के लिए विजय प्राप्त की । कहते हैं, उस ब्रह्म की विजय में देवताओं ने गौरव प्राप्त किया ॥१॥
त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ।     तद्धैषां  विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्याजानत किमिदं यक्षमिति ॥२॥
             उन्होने सोचा हमारी ही यह विजय है और हमारी ही यह महिमा है । कहते हैं, वह ब्रह्म देवताओं के अभिप्राय को जान गया और उनके सामने प्रादुर्भूत हुआ । तब देवता लोग [यक्षरूप में प्रकट हुए] उस ब्रह्म को ‘यह यक्ष कौन है?’ ऐसा न जान सके ॥२॥

तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमिदं यक्षमिति तथेति ॥३॥
         उन्होने अग्नि से कहा— हे अग्ने ! इस बात को मालूम करो कि यह यक्ष कौन है ?  उसने कहा —      ‘बहुत अच्छा’ ॥३॥
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीत्यग्निर्वा अहमस्मीत्यब्रवीज्जात—वेदा वा अहमस्मीति ॥४॥
          अग्नि उस यक्षके पास गया । उसने अग्नि से पूँछा- ‘तू कौन है ?’ उसने कहा— ‘मैं अग्नि हूँ, मैं निश्चय जातवेदा ही हूँ’ ॥४॥
तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति॥५॥
         [फिर यक्ष ने पूछा--] ‘उस [जातवेदारूप] तुझमें सामर्थ्य क्या है ?’ [अग्नि ने कहा—] ‘पृथिवी में यह जो कुछ है उस सभी को जला सकता हूँ’ ॥५॥
तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥६॥
         तब यक्ष ने उस अग्नि के लिए एक तिनका रख दिया और कहा— ‘इसे जला’। अग्नि उस तृण के समीप गया, परन्तु अपने सारे वेग से भी उसे जलाने में समर्थ नहीं हुआ । वह उसके पास ही लौट आया और बोला— ‘यह यक्ष कौन है— इस बात को मैं नहीं जान सका’ ॥६॥
अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥७॥
         तदनन्तर, उन देवताओं ने वायु से कहा— ‘हे वायो ! इस बात को मालूम करो कि यह यक्ष कौन है ?’ उसने कहा— ‘बहुत अच्छा’ ॥७॥
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥८॥
         वायु उस यक्ष के पास गया, उसने वायु से पूछा— ‘तू कौन है ?’ उसने कहा— ‘मैं वायु हूँ—   मैं निश्चय मातरिश्वा ही हूँ’ ॥८॥
तस्मिँस्त्वयि  किं  वीर्यमित्यपीदँसर्वमाददीय  यदिदं पृथिव्यामिति ॥९॥
         [तब यक्ष ने पूछा— ‘उस [मातरिश्वा] तुझमें क्या सामर्थ्य है ?’ [वायु ने कहा--] ‘पृथिवी में यह जो कुछ है उस सभी को ग्रहण कर सकता हूँ’ ॥९॥
तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाकादातुं  स  तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥१०॥
           तब यक्ष ने उस वायु के लिए एक तिनका रखा और कहा— ‘इसे ग्रहण कर ।’ वायु उस तृण के समीप गया । परन्तु अपने सारे वेग से भी वह उसे ग्रहण करने में समर्थ न हुआ । तब वह उसके पास से लौट आया और बोला— ‘यह यक्ष कौन है— इस बात को मैं नहीं जान सका’ ॥१०॥
अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥११॥
        तदनन्तर देवताओं ने इन्द्र से कहा— ‘मघवन् ! यह यक्ष कौन है— इस बात को मालूम करो ।’ तब इन्द्र ‘बहुत अच्छा’ कह उस यक्ष के पास गया, किन्तु वह इन्द्र के सामने से अन्तर्ध्यान हो गया ॥११॥
स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँहैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥१२॥
         वह इन्द्र उसी आकाश में [जिसमें कि यक्ष अन्तर्धान हुआ था] एक अत्यन्त शोभामयी स्त्री के पास आया और उस सुवर्णाभूषणभूषिता [अथवा हिमालय की पुत्री] उमा (पार्वती रूपिणी ब्रह्मविद्या) से बोला— ‘यह यक्ष कौन है ?’॥१२॥
चतुर्थ खण्ड
उमा का उपदेश
सा ब्रह्मेति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये महीयध्वमिति ततो हैव विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥१॥
        उस विद्यादेवी ने स्पष्टया कहा— ‘यह ब्रह्म है’ तुम ब्रह्म के ही विजय में इस प्रकार महिमान्वित हुए हो ’। कहते हैं, तभी से इन्द्र ने यह जाना कि यह ब्रह्म है ॥१॥
तस्माद्वा एते देवो अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ह्योनन्नेदिष्ठं पस्पृशुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥२॥
      
         क्योंकि अग्नि, वायु और इन्द्र— इन देवताओं ने ही इस समीपस्थ ब्रह्म का स्पर्श किया था और उन्होने ही उसे पहले-पहल ‘यह ब्रह्म है’ ऐसा जाना था, अतः वे अन्य देवताओं से बढ़कर हुए ॥२॥
तस्माद्वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान्देवान्स ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥३॥
         इसलिए इन्द्र अन्य सब देवताओं से बढ़कर हुआ; क्योंकि उसने ही इस समीपस्थ ब्रह्म का स्पर्श किया था— उसने ही पहले-पहल ‘यह ब्रह्म है’ इस प्रकार इसे जाना था ॥३॥
तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा३ इतीन्न्यमीमिषदा ३ इत्यधिदैवतम् ॥४॥
          उस ब्रह्म का [उपासना-सम्बन्धी] यह आदेश है । जो बिजली के चमकने के समान तथा पलक मारने के समान प्रादुर्भूत हुआ वह उस ब्रह्म का अधिदैवत रूप है ॥४॥
अथाध्यात्मं यदेतद्गच्छतीव च मनोऽनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णँसङ्कल्पः ॥५॥
 
          इसके अनन्तर आध्यात्म उपासना का उपदेश कहते हैं— यह मन जो जाता हुआ-सा कहा जाता है वह ब्रह्म है—इस प्रकार उपासान करनी चाहिए, क्योंकि इससे ही यह ब्रह्म का स्मरण करता है और निरन्तर संकल्प किया जाता है ॥५॥
        किं च—
तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि हैनँसर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति ॥६॥
          वह यह ब्रह्म ही वन (सम्भजनीय) है । उसकी ‘वन’ — इस नाम से उपासना करनी चाहिए । जो उसे इस प्रकार जानता है उसे सभी भूत अच्छी तरह चाहने लगते हैं ॥६॥
उपनिषदंच् भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद्ब्राह्मी वाव त उपनिषदमब्रूमेति ॥७॥
            [शिष्य के यह कहने पर कि] हे गुरो ! उपनिषद् कहिए [गुरु ने कहा] ‘हमने तुझसे उपनिषद् कह दी । अब हम तेरे प्रति ब्राह्मणजातिसम्बन्धिनी उपनिषद् कहेंगे’ ॥७॥

तस्यै तपो  दमः  कर्मेति  प्रतिष्ठा वेदाः सर्वाङ्गानि  सत्यमायतनं ॥८॥
           उस (ब्राह्मी उपनिषद्) – की तप, दम, कर्म तथा वेद और सम्पूर्ण वेदाङ्ग — ये  प्रतिष्ठा हैं  एवं सत्य आयतन  है ॥८॥
यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति ॥९॥
           जो निश्चयपूर्वक इस उपनिषद् को इस प्रकार जानता है वह पाप को क्षीण करके अनन्त और महान् स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होता है, प्रतिष्ठित होता है ॥९॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्च्क्षुः श्रोतमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु  धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!