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09 February, 2011

Baaveru Jaatakam


बावेरुजातको
       अतीते बाराणसियं ब्रह्मदत्त्ते रज्जं कारेन्ते बोधिसत्तो मोरयोनियं निब्बत्तित्वा बुद्धिं अन्वाय सोभग्गप्पत्तो अरञ्जे विचरि । तदा एकच्चे वाणिजा दिसाकाकं गहेत्वा नावाय बावेरुरट्ठं अगमंसु । तस्मिं किर काले बावेरुरट्टे सकुणा नाम नत्थि । आगतागता रट्टवासिनो तं कूतग्गे निसिन्नं दिस्वा पस्सथि’मस्स छविवण्णं गलपरि- योसानं मुखतुण्डकं मणिगुळ्सदिसानि अक्खीनीति । काकं एव पसंसित्वा ते वाणिजके आहंसु , ‘तुम्हे अत्तनो रट्ठे अञ्ञं लभिस्सथा’ ति । ‘तेन हि मूलेन गण्हथा’ ति । ‘कहापणेन नो देथा’ ति । ‘न देमा’ ति । अनुपुब्बेन वड्ढेत्वा ‘सतेन देथा’ ति वुत्ते ‘अम्हाकं एस बहूपकारो , तुम्हेहि पन सद्धिं मेत्ती होतू’ ति कहापणसतं गहेत्वा   अदंसु । ते तं गहेत्वा सुवण्णपञ्जरे पक्खिपित्वा नानप्पकारेन मच्छमंसेन चे’व फलाफलेन च पटुजग्गिंसु । अञ्ञेसं सकुणानं अविज्जमानट्ठाने दसहि असद्धम्मेहि समन्नागतो काको लाभग्गयसग्गप्पत्तो अहोसि । पुनवारे ते वाणिजा एकं मयूरराजानं गहेत्वा यथा अच्छरासद्देन वस्सति पाणिप्पहारसद्देन नच्चति एवं सिक्खापेत्वा बावेरुरट्ठं अगमंसु । सो महाजने सन्निपतिते नावाय धुरे ठत्वा पक्खे विधूनित्वा मधुरस्सरं निच्छारेत्वा नच्चि । मनुस्सा तं दिस्वा सोमनस्सजाता— ‘एतं अय्यो सोभग्गप्पत्तं सुसिक्खितसकुणराजानं अम्हाकं देथा’ ति आहंसु । ‘अम्हेहि पठमं काको आनीतो, तं गण्हित्थ’ इदानि एतं मोरराजानं आनायिम्ह, एतम्पि याचथ । तुम्हाकं रट्टे सकुणं नाम गहेत्वा आगन्तुं न सक्का’ ति । ‘होतु अय्यो, अत्तनो रट्ठे अञ्ञं लभिस्सथ, इमं नो देथा’ ति मूलं वड्ढेत्वा सहस्सेन गण्हिंसु । अथ नं सत्तरतनविचित्ते पञ्जरे ठपेत्वा मच्छमंसफलाफलेहि चे’ व मधुलाजासक्खरापानकादीहि च पटिजग्गिंसु । मयूरराजा लाभग्गयसग्गपत्तो जातो । तस्सागतकालतो पट्ठाय काकस्स लाभसक्कारो परिहायि, कोचि नं ओलोकितुं पि न इच्छि । काको खादनीय-भोजनीयं  अलभमानो ‘काका’ ति वस्सन्तो गन्त्वा उक्कारभूमियं ओतरि ।
अदस्सनेन  मोरस्स  सिखिनो मञ्जुभाणिनो ।
काकं  तत्थ  अपूजेसुं  मंसेन  च  फलेन  च  ॥
यदा  च  सरसम्पन्नो  मोरो  बावेरुमागमा  ।
अथ  लाभो  च  सक्कारो  वायसस्स  अहायथ ॥
याव   नु’प्पज्जति   बुद्धो   धम्मराजा पभंकरो ।
ताव   अञ्ञे   अपूजेसुं   पुथू   समणब्राह्मणे  ॥
यदा   च   सरसम्पन्नो  बुद्धो  धम्मं  अदेसयि  ।
अथ लाभो च सक्कारो तित्थियानं अहायथा’ ति ॥

बावेरु जातकम् का हिन्दी अनुवाद

   अतीत काल में वाराणसी में ब्रह्मदत्त के शासनकाल में बोधिसत्त्व मयूरयोनि में उत्पन्न होकर, बुद्धि से संपन्न होकर तथा सौभाग्य प्राप्त कर जङ्गल में विचरण कर रहे थे । तब एक दिन कुछ वणिग्जन दिशा— काक को लेकर नाव के द्वारा बावेरु राष्ट्र गए । उस काल में बावेरु राष्ट्र में पक्षी नहीं होते थे । उस (काक) को कूप के अग्रभाग पर स्थित देखकर राष्ट्रवासी आ-आकर उसकी छवि, गले तक फैली हुई चोंच एवं गोल मणि के सदृश आँखों को देखने लगे । कौवे के प्रशंसा करते हुए उन राष्ट्रवासियों ने बनियों से कहा— ‘हे आर्य ! उस पक्षी को हम लोगों को दे दें । हमारा इससे लाभ होगा । आप अपने राष्ट्र में दूसरा प्राप्त कर लीजिएगा । इसलिए मूल्य ले लीजिए ।’ कार्षापण में इसे हमें दे दीजिए । ‘नहीं देंगे’ (इस प्रकार) क्रमशः (मूल्य) बढ़ाकर (कहा) सौ (कार्षापण) में दे दीजिए । हमारा उससे बहुत उपकार होगा, पुनः आपके साथ मैत्री भी हो जाएगी ।’ ऐसा कहने पर सौ कार्षापण लेकर (उसे) दे दिया । वे उसे लेकर सुवर्ण-पञ्जर में डालकर नाना प्रकार के मत्स्य मांस, फलाफल मधु, शक्कर के द्वारा उसका सत्कार करने लगे । अन्य पक्षियों के अविद्यमान होने से दस असद्धर्मों से युक्त कौआ ही लाभ एवं यश प्राप्त करने लगा । पुनः एक बार वे बनिये एक मयूरराज को ग्रहण करके अक्षर शब्द से बोले एवं हाथ के प्रहार के शब्द से नृत्य करें— ऐसा सिखाकर बावेरु राष्ट्र गये । वह (मयूरराज) महाजनों के एकत्र होने पर नाव की धुरी पर स्थित होकर अपने पंखों को हिलाकर मधुर स्वर उच्चरित करते हुए नृत्य करने लगा । सभी मनुष्य उसे देखकर प्रमुदित मन से ‘आर्य ! यह सौभाग्यप्राप्त, सुशिक्षित पक्षिराज हमें दे दीजिए, ऐसा बोले ।’ ‘हम पहले कौआ लाये, उसे ले लिया, अब मयूरराज लाये, इसे भी माँग रहे हैं । आप लोगों के राष्ट्र में पक्षी लेकर नहीं आया जा सकता ।’ ‘हे आर्य ! अपने राष्ट्र में दूसरा  प्राप्त कर लीजिएगा, इसे हमें दे दीजिए ।’ (इस प्रकार) मूल्य बढ़ाकर हजार (कार्षापण) से ले लिया । अब इसे सात रत्नों से बने विचित्र पिञ्जरे में स्थापित कर मत्स्य मांस, फलाफल, मधु, शक्कर, पानक आदि से उसका सत्कार करने लगे । मयूरराज लाभ एवं यश प्राप्त करने लगे । उस (मयूरराज) के आने के पश्चात् कौवे का लाभ एवं सत्कार बन्द हो गया । कोई इसे देखना भी नहीं चाहता था । कौआ भी भोज्य पदार्थ के अभाव में ‘काँव-काँव’ ऐसा कहता हुआ जाकर उत्कार भूमि (शौचालय) में उतर गया ।
    मंजुभाषी मयूर के अदर्शन से मांस एवं फल द्वारा कौआ पूजा जाता था, (परन्तु) जब स्वरसम्पन्न मयूर बावेरु आया, तब कौए का लाभ एवं सत्कार त्याग दिया   गया । (इसी प्रकार) जब तक धर्मराज प्रभाकर बुद्ध उत्पन्न नहीं हुए, तब तक ही अन्य श्रमण ब्राह्मण पूजे जाते थे । जब स्वर सम्पन्न बुद्ध ने धर्म का उपदेश दिया , तब (अन्य) तैर्थिकों का लाभ-सत्कार त्याग दिया गया ।



3 comments:

  1. शान्तिः मैत्री

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  2. शान्ति अर्थात् बुद्ध की अवस्था !
    मैत्री अर्थात् संघ !!
    शील अर्थात् धम्म !!!

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    1. मुझे यह बुक कहाँ और कैसे मिल सकती है???
      मेरी एग्जाम है 4 फ़रवरी को और यह कहीं मिल नही pls बताइये plsss

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