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23 September, 2011

ABIDHAA IN SANSKRIT KAAVYAS





               Indian Poetics & Aesthetics               
Topic
काव्यों में वाच्यार्थ का स्थान
Author
Satrudra Prakash
Email: satrudra90@gmail.com
Special Centre for Sanskrit Studies
Jawaharlal Nehru University
New Delhi 110067

भूमिका
            भारतीय काव्य के अपार एवं अखण्ड परम्परा में न केवल दृश्य एवं श्रव्य काव्यों का प्रणयन हुआ अपितु उनकी रचनाविधि, काव्यनिर्माण का प्रयोजन, काव्य के हेतु, लक्षण तथा शब्द के द्वारा किसी भाव को व्यक्त करने की प्रक्रिया का भी व्यापक सर्वेक्षण एवं विचार-विमर्श करके नियमों की सृष्टि की गयी । इन्ही सभी विमर्शों के परिणाम स्वरूप काव्य के साथ काव्यशास्र नामक एक ऐसी विधा का जन्म भारतीय मनीषा के प्रताप से हुआ जो के पाश्चात्य काव्य में दृष्टिगोचर नहीं होती । यही कारण है कि भारतीय (संस्कृत) काव्यपरम्परा में जितने कवि हुए हैं उसी अनुपात में काव्यशास्त्रीय आचार्यों का भी आविर्भाव एवं योगदान दिखाई देता है ।
          संस्कृत काव्य का प्रारम्भ सभी विधाओं के मूल उत्स, ऋग्वेद की ऋचाओं से ही प्राप्त होने लगता है जहाँ यम-यमी, नल-दमयन्ती, पुरुरवा-उर्वशी इत्यादि अनेक आख्यान मिलते हैं जिनमें आधुनिक काव्य के बीज स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं । लौकिक काव्य का प्रारम्भ महर्षि वाल्मीकि प्रणीत रामायण से माना जाता है जहाँ से यह निरन्तर प्रगति करते हुए कालिदास, भारवि, भास, भवभूति,माघ, जैसे मूर्धन्य काव्यकर्ताओं से होते हुए आज सम्पूर्ण विश्व को अपने अलौकिक आनन्द से रससिक्त कर रहा है ।
             काव्य के विभिन्न आयामों में से एक है वह शक्ति जिसके बल पर काव्य सौन्दर्य कवि के मानस पटल से उभरकर श्रोता अथवा दर्शक के हृदय में उसके उद्देश्य के हिसाब से रस को जागृत करके उसे आनन्दानुभूति कराता है । यह शक्ति शब्द और अर्थ के मध्य होती है । अतः इसे शब्दशक्ति कहते हैं । “इसका दूसरा नाम व्यापार भी है । शब्द में निहित अर्थ-संपत्ति को प्रकट करने वाला तत्त्व शब्दव्यापार या शब्दशक्ति है । शब्दशक्तियाँ साधन के रूप में समादृत हैं । शब्द कारण है और अर्थ कार्य और शब्दशक्तियाँ साधन या व्यापार-रूप हैं । शब्दशक्ति के बिना शब्द के अर्थ का ज्ञान संभव नहीं है । अतः, शब्द और अर्थ के संबंध में विचार करने वाले तत्त्व को शब्दशक्ति कहते हैं । शब्द की तीन शक्तियाँ हैं । अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना । एक अन्य शक्ति तात्पर्य भी है जो शब्द का व्यापार न होकर वाक्य का व्यापार है । शब्द तीन प्रकार के होते हैं— वाचक, लक्षक और व्यञ्जक तथा  इनसे क्रमशः तीन प्रकार के अर्थ प्रकट होते हैं वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ । इन तीनों अर्थों की प्रतीति तीन प्रकार की शक्तियों— अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना द्वारा होती है । (भारतीय साहित्यशास्त्र कोश, पृष्ठ १२८३)
            शब्दशक्तियों में सबसे पहले परिगणित तथा इस कारण प्रथमा नाम से जानी जाने वाली अभिधा शक्ति से प्रकट होने वाले वाच्यार्थ के बारे में काव्यशास्त्रीय आचार्यों के मत के अनुसार उसका निरूपण करते हुए संस्कृत काव्यों में उसकी उपस्थिति, स्वरूप तथा व्यावहारिक पक्ष का विश्लेषण करके उसका स्थान निरूपित करना इस लेख का प्रमुख उद्देश्य है जिससे यह जानने का प्रयास किया जाएगा कि वाच्यार्थ काव्य- सौन्दर्य को बढ़ाने तथा उसके प्रवाह को गतिमान बनाने में कितना सफल होता है और संस्कृत काव्यों में उसका कहाँ तक और कितना प्रयोग किया गया है ।

वाच्यार्थ : आचार्य मम्मट का मत
              वाच्य के मूल अर्थात् वाचक को व्याख्यायित करते हुए आचार्य मम्मट ने प्रतिपादित किया है कि “जो साक्षात् संकेतित अर्थ को (अभिधा शक्ति के द्वारा) कहता है वह ‘वाचक’ कहलाता है ।[1](साक्षात्संकेतितं योऽर्थमभिधत्ते स वाचकः) । वाचक शब्दों से जो अर्थ प्रस्फुटित होते हैं वे वाचकार्थ अथवा वाच्यार्थ कहलाते हैं । (वाच्यादयस्तदर्थस्याः स्युः – काव्य प्रकाश, २.६) वाच्यार्थ के मूल में जो शक्ति कार्य करती है उसे अभिधा कहा जाता है जिसे आचार्य मम्मट ने इस प्रकार परिभाषित किया है :
“स मुख्योऽर्थस्तत्र मुख्यो व्यापारोऽस्याभिधोच्यते” (काव्य प्रकाश, २.८)
अर्थात्, ऐसा अर्थ मुख्य अर्थ कहलाता है जो साक्षात् संकेतित हो; ऐसे साक्षात् अर्थ का बोधन कराने वाले व्यापार को अभिधा कहते हैं । इसकी व्याख्या काव्यप्रकाश के व्याख्याकार आचार्य विश्वेश्वर ने इस प्रकार की है :
“जैसे शरीर के सारे अवयवों में मुख सबसे प्रधान है और सबसे पहले दिखलाई देता है उसी प्रकार वाच्य, लक्ष्य तथा व्यङ्ग्य सब अर्थों में वाच्यार्थ सबसे प्रधान और सबसे पहले उपस्थित होने वाला अर्थ है इसलिए मुख के समान होने से उसको ‘मुख्यार्थ’ कहा जाता है । उस वाच्यार्थ या ‘मुख्यार्थ का बोधन करानेवाला जो शब्द का व्यापार है उसको अभिधा व्यापार कहते हैं । अतः यहाँ वाच्यार्थ ही मुख्यार्थ कहा जाता है ।” (काव्यप्रकाश, पृष्ठ,५०)
आचार्य विश्वनाथ का मत
          साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने भी सभी आचार्यों की भाँति अभिधा को प्राथमिक मानते हुए इस प्रकार परिभाषित किया है :
“तत्र संकेतितार्थस्य बोधनादग्रिमाभिधा” (साहित्यदर्पण, २.४)
अर्थात् अभिधा शक्ति वह है जिससे संकेतित (प्रसिद्ध) अर्थ का अवबोध हुआ करता है और इसीलिए इसे शब्द की प्रथम शक्ति कहा करते हैं । इस प्रकार आचार्य विश्वनाथ ने स्पष्ट रूपसे अभिधा को प्रथम और अनिवार्य तत्त्व मानते हुए उसे संकेतित अर्थ का साक्षात् कराने का प्रधान साधन माना है ।
           काव्यशास्त्र के इन दो प्रमुख एवं विरोधी आचार्यों के मतों से स्पष्ट है कि अभिधा एक ऐसी शब्दशक्ति है जो सर्वप्रथम संकेतित अर्थ का बोध कराती और जिसके उपरान्त ही लक्षणादि अन्य अर्थों का उद्घाटन होता है । इसी कारण अभिधा को प्रथमा, मुख्यार्थबोधक एवं वाच्यार्थ भी कहा जाता है ।
संस्कृत काव्यों में वाच्यार्थ का प्रयोग
            यद्यपि उत्तम काव्य का पैमाना व्यङ्ग्यार्थ का बाहुल्य माना जाता है जिससे कवि की प्रतिभा का भी अनुमान होता है और काव्य की अलौकिकता का भी । तथापि वाच्यार्थों का भी प्रयोग संस्कृत के अग्रगण्य कवियों ने यथाअसवर किया है तथा उनका यह प्रयोग काव्य के रस प्रवाह में सहायक ही हुआ है । काव्य जगत् में मुख्यतः महाकवि माघ, कालिदास,भारवि, शतकत्रय के प्रणेता महाराज भर्तृहरि, महाकवि शूद्रक आदि ने लक्ष्यार्थ, व्यङ्ग्यार्थ के साथ-साथ व्याच्यार्थ का भी  प्रयोग किया है ।
                महाकवि कालिदास को मुख्यतः व्यङ्ग्यार्थ का सिद्धहस्त कवि माना जाता है परन्तु उन्होने न केवल व्यङ्ग्यार्थ और लक्ष्यार्थ का प्रयोग किया है, अपितु वाच्यार्थ का भी यत्र-तत्र परन्तु चमत्कारोत्पादक प्रयोग किया है । उनके महान् ग्रन्थ “अभिज्ञानशाकुन्तलम्” में इसके प्रयोग दृष्टव्य हैं:
ग्रीवाभङ्गाभिरामं मुहुरनुपतति स्यन्दने वद्धदृष्टिः
पश्चार्धेन प्रविष्टः शरपतनभयाद् भूयसा पूर्वकायम् ।
दर्भैरर्धावलीढैः श्रमविवृतमुखभ्रंशिभिः कीर्णवर्त्मा
पश्योदग्रप्लुतत्वाद् वियति बहुतरं स्तोकमुर्व्यां प्रयाति ॥ (अभिज्ञानशाकुन्तलम्, १.७)
प्रस्तुत पद्य में महाकवि कालिदास ने महाराज दुष्यन्त के मुखसे मृग की भाव-भंगिमाओं का वर्णन किया है, मृग का मनोहरतापूर्वक गर्दन घुमाना, पीछे घूमकर आते हुए रथ पर दृष्टिपात् करना, ये सभी कथन सीधे-सीधे कहे गये हैं जिनमें वाच्यार्थ ही प्रधान है, फिर भी यहाँ हिरण की विभिन्न गतिविधियों को देखकर सहृदय को रस की अद्भुत अनुभूति होती है । इसी प्रकार यह पद्य दृष्टव्य है :
नीवाराः शुकगर्भकोटरमुखभ्रष्टास्तरुणामधः
प्रस्निग्धाः क्वचिदिङ्गुदीफलभिदः सूच्यन्त एवोपलाः ।
विश्वासोपगमादभिन्नगतयः शब्दं सहन्ते मृगा-
-स्तोयाधारपथाश्च वल्कलशिखानिष्यन्दरेखाङ्किताः ॥ (अभि.शा., १.१३)
इस श्लोक में आश्रम की भूमि में प्रवेश करते ही महाराज दुष्यन्त वहाँ की छटा देखकर यह श्लोक कहते हैं जिसे सुनकर या देखकर सहृदय अनायास ही आश्रम के वातावरण में प्रविष्ट हो जाता है और उसे शान्त रस जैसा एक भक्तिपूर्ण रस प्राप्त होने लगता है जो उसे शान्तिपूर्ण आनन्द प्रदान करता है ।
चलापाङां दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमतीं
सहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः ।
करौ व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधरं
वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती ॥ (अभि.शा. १.२०)
इस पद्य में भी राजा दुष्यन्त, शकुन्तला को उस स्थिति में देखते हैं जब उसे एक भ्रमर आतंकित कर रहा था और शकुन्तला की भाव-भंगिमाएं अत्यन्त रसपूर्ण थीं । यहाँ पर कवि ने यद्यपि लक्षणा या व्यंजना का प्रयोग नहीं किया है तथापि वाच्यार्थ से ही शृंगार रस की अद्भुत चर्वणा हो रही है ।
स्निग्धं वीक्षितमन्यतोऽपि नयने यत्प्रेयन्त्या तया
यातं यच्च नितम्बयोर्गुरुतया मन्दं विलासादिव ।
मा गा इत्युपरुद्धया यदपि सा सासूयमुक्ता सखी
सर्वं तत् किल मत्परायणमहो कामी स्वतां पश्यति ॥ (अभि. शा., २.२)
इस श्लोक में भी राजा दुष्यन्त अपने साथी विदूषक माधव्य से शकुन्तला के बारे में बता रहे हैं कि कैसे वह उन्हे देखकर रुक गयी थी, जाते हुए पाँवों को इस तरह उठा रही थी और उसके नितम्ब इतने गुरु प्रतीत हो रहे थे मानो वह न जाना चाहती हो । यहाँ पर दृष्टव्य है कि यद्यपि शैली वर्णनात्मक है तथा बात सीधे-सीधे कही गयी है, परन्तु अलंकारों का संतुलित प्रयोग, अद्भुत वाक्विन्यास आदि अनेक ऐसे चमत्कार उत्पन्न कर दिये गये हैं कि यद्यपि बात वाच्यार्थ के माध्यम से कही गयी है फिर भी श्रंगार रस की एक अद्भुत छटा दिखाई देती है ।
         इसी प्रकार अनेकशः प्रयोग सम्पूर्ण अभिज्ञानशाकुन्तलम् में यत्र-तत्र देखने को मिलते हैं जहाँ पर वाच्यार्थ का ही प्रयोग है परन्तु वहाँ भी रसानुभूति तथा आनन्द की प्राप्ति सहृदय को उसी भाँति होती है जैसे अन्य व्यापारों से होती है । यह इस  तथ्य का प्रमाण है कि यदि सही स्थान पर वाच्यार्थ का प्रयोग किया जाय तो रस चर्वणा में कोई बाधा नहीं होती ।
इसी प्रकार महाकवि कालिदास की महान् कृति मेघदूतम् में भी वाच्यार्थ के द्वारा अनेक स्थलों पर इस प्रकार के वर्णन प्राप्त होते हैं जहाँ काव्य की उत्तम सृष्टि भी हुई है । यह एक गीतिकाव्य है जिसमें एक विरही यक्ष अपनी प्रिया के पास मेघ को दूत बनाकर भेजता है जो कि उसकी वल्लभा से उसकी कुशल-क्षेम कहने के लिए यक्ष पुरी जाता है । इस काव्य में यक्ष ने अनेक प्रकार से मेघ की स्तुति करके उसे अपनी नगरी भेजता है तथा बड़ी कुशलता से उसका मार्ग-निर्देश करता है । इसमें अनेक स्थलों पर सूक्तियों एवं रसात्मक पद्यों का प्रयोग कालिदास ने किया है जहाँ वाच्यार्थ के माध्यम से सम्पूर्ण सौन्दर्य एवं रस की अनुभूति होती है :
तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नीमव्यापन्नामविहतगतिर्दृक्ष्यसि भ्रातृजायाम् ।
आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि ॥ (मेघदूतम्, पूर्वमेघ, श्लोक ९)
         इस श्लोक में  यक्ष का करुण विलाप सहित ये निवेदन कि तुम्हारी भाभी यानि मेरी पत्नी, विरह के बाकी बचे दिनों को गिन-गिनकर काट रही होगी और पुनर्मिलन की आशा के कारण वह अवश्य जीवित होगी; इस भावुकतापूर्ण कथन का श्रवण मात्र ही श्रोता के हृदय में वियोग शृंगार रस की प्रत्यक्ष अनुभूति करा देता है । जबकि यहाँ भी महाकवि ने वाच्यार्थ के माध्यम से ही यह कथन किया है ।
        इसी प्रकार के अन्य अनेक उदाहरण मेघदूत के दोनों सर्गों (पूर्व एवं उत्तरमेघ ) में देखने को मिल जाते हैं जहाँ अभिधा शब्दशक्ति के  द्वारा ही चमत्कारोत्पादक काव्य-सृष्टि का विधान किया गया है ।
महाकवि माघ की अमर कृति, “शिशुपालवधम्” मे अनेक स्थलों पर भगद्विषयक रतिभाव का स्फुरण हुआ है जहाँ वाच्यार्थ के माध्यम से ही उत्कृष्ट काव्य की सृष्टि की गयी है और रस भी प्रस्फुटित हुआ है । एक उदाहरण दृष्टव्य है :
श्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगज्जगन्निवासः वसुदेवसद्मनि ।
वसन्ददर्शावतरन्तमम्बराद्धिरण्यगर्भाङ्गभुवं मुनिं हरिः ॥ (शिशुपालवधम्, १.१)
यह शिशुपालवधम् महाकाव्य का प्रथम श्लोक है जिसमें माघ ने उत्कृष्ट काव्य-प्रतिभा का परिचय देते हुए यह सिद्ध कर दिया है कि यदि अलंकारों, शब्द-पदलालित्य का संतुलित प्रयोग किया जाय तो वाच्यार्थ के द्वाराकिया गया अभिव्यक्तिकरण भी सहृदय के हृदय में अनेक प्रकार से रस की अनगिनत धाराएँ प्रवाहित कर देता है । इसके अनन्तर अगले ११ श्लोकों में महर्षि नारद का वर्णन है जो इतना भक्तिपूर्ण एवं चमत्कारोत्पादक है कि अनायास ही सहृदय को भगवत्विषयक रति की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है ।

महाकवि भारवि, जिनकी एकमात्र कृति “किरातार्जुनीयम्” को वृहत्त्रयी के अन्तर्गत परिगणित किया जाता है और साहित्य-जगत् में इस कृति का विशेष महत्त्व है, इसमें भारवि ने अपनी सम्पूर्ण काव्य-प्रतिभा का उद्घाटन किया है तथा इसके पद्य आज के संस्कृत लेखन के भी महत्त्वपूर्ण प्रेरणा-स्त्रोत हैं । इस महाकाव्य में भी वाच्यार्थ का निदर्शन होता है प्रथम सर्ग में तो कवि ने वनेचर के बोलने के पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि वह द्वयर्थक (लक्षणादि) का प्रयोग न करके अत्यन्त सीधे और एकार्थक ढंग से तथा निश्चित अर्थ वाले वाक्यों के द्वारा सारा वृतांत कहेंगे ।[2]
      इसी प्रकार के अनेक उदाहरण किरातार्जुनीयम् महाकाव्य में मिलते हैं जहाँ कवि ने अपने प्रतिभा के बल पर इस तरह से अलंकारो, छन्दों, इत्यादि का प्रयोग किया है कि वाच्यार्थ के माध्यम से ही अलौकिक काव्य की अनुभूति प्रत्यक्ष अनुभूति होती है :
अखण्डमाखण्डलतुल्यधामभिः चिरं धृता भूपतिभिः स्ववंशजैः ।
त्वयात्महस्तेन मही मदच्युता मतङ्गजेन स्त्रगिवापवर्जिता ॥ (किरातार्जुनीयम्, १.२९)
द्रौपदी द्वारा कही गयी यह उक्ति युधिष्ठिर के प्रति है जिसमें उसने महाराज युधिष्ठिर को झकझोरते हुए कहा है कि आप ने इन्द्र के समान  प्रभावशाली, अपने ही वंश में उत्पन्न नृपों के द्वारा दीर्घकाल से अखण्डरूप से शासित पृथ्वी को इस प्रकार गँवा दिया, जैसे मदस्त्रावी गजराज (अपने ही गले में पड़ी) माला को अपनी ही सूँड़ से फेंक देता है ।
इस पद्य में कवि ने उपमा अलंकार का तथा ओज शैली का प्रयोग करते हुए इस प्रकार इसे रससिक्त किया है कि यहां वाच्यार्थ ही विशाद मिश्रित एक विलक्षण प्रकार के रस की अनुभूति करा देता है ।
इसी प्रकार के पद्य यत्र-तत्र बिखरे हुए मिल जाते हैं जहाँ कवि ने अभिधा का प्रयोग करके भी रस की सुन्दर एवं चमत्कारोत्पादक सृष्टि की है ।
“मृच्छकटिकम्” के लेखक महाकवि शूद्रक, को भी उनकी एक ही कृति ने साहित्य-जगत् में उनका स्थान स्थित किया तथा भारतीय नाट्य-साहित्य में उनका प्रकरण-ग्रन्थ विद्वानों के मध्य आज भी आदर की दृष्टि से देखा जाता है । इस नाट्य विधा में समाज के यथार्थ का सजीव वर्णन मिलता है जहाँ अनेक पात्र जो अधम हैं, नृप है, वेश्या, गणिका, नर्तकी, जुआड़ी, मद्यपायी हैं, सभी अपनी-२ भाषा में संवाद करते हुए इसे रोचक एवं मनोहारि बना देते हैं, परन्तु साथ में ये भी दृष्टव्य है कि इस नाट्यग्रन्थ में भी वाच्यार्थ का प्रयोग बहुलता से किया गया है । नाटक का नायक एक दरिद्र विप्र चारुदत्त तथा नायिका एक गणिका वसन्तसेना है, और अन्य अधम पात्र भी हैं परन्तु सभी लगभग वाच्यार्थ के द्वारा ही संवाद संप्रेषण करते हैं ।
मृच्छकटिकम् के वाच्यार्थ के उदाहरण दृष्टव्य हैं :
यासां बलिः सपदि मद्गृहदेहलीनां हंसैश्च सारसगणैश्च विलुप्तपूर्वः ।
तास्वेव सम्प्रति विरढ़तृणाङ्कुरासु बीजाञ्जलिः पतति कीटमुखावलीढः ॥ (मृच्छकटिकम् १.९)
सत्यं न मे विभवनाशकृताऽस्ति चिन्ता भाग्यक्रमेण हि धनानि भवन्ति यान्ति ।
एतत्तु मां दहति, नष्टधनाश्रयस्य यत् सौहृदादपि जनाः शिथिलीभवन्ति ॥ (वहीं, १.१३)
इस श्लोक के आगे चारुदत्त ने दरिद्रता से आने वाले अवसादों तथा विपत्तियों का वर्णन किया है । इसी सर्ग में आगे बड़ा हास्यपूर्ण वर्णन आता है जब वसन्तसेना का पीछा करते हुए शकार यह हास्यपूर्ण श्लोक कहता है:
मम मअणमणंगं मम्महं वड्ढअन्ती णिशि अ शअणके मे णिद्दअं आक्खिवन्ती ।
पशलशि भअभीदा  पक्खलन्ती खलन्ती मम वशमणुजादा लावणश्शेव कुन्ती ॥ (मृच्छकटिकम् १.२१)
शकार की एक अन्य उक्ति दृष्टव्य है जहाँ उसने एक असन्तुलित तथा हास्यास्पद उक्ति कही है और वहभी इस शैली में महाकवि शूद्रक ने उसे प्रस्तुत किया है कि वह वाच्यार्थ द्वारा ही हास्य रस का सम्पूर्ण आनन्द दे देता है:
झाणज्झणन्तबहुभूषणधद्दमिश्शं कि दोवदी विअ पलाअशि लामभीदा ।
एशे हलामि शहशत्ति जधा हणूमे विश्शावशुश्श वहिणिं विअ तं शुभद्दं ॥ (वहीं, १.२५)
यहाँ राम के डर से द्रौपदी का भागना, सुभद्रा का अपहरण हनुमान के द्वारा कहना एक हास्यास्पद उक्ति है जिसे महाकवि शूद्रक ने बड़ी कुशलतापूर्वक शकार से कहलवाकर उसे एक मूर्ख और हँसी का पात्र बना दिया है । वह हर बात सीधे-सीधे शब्दों में कहता है परन्तु ऐसे उपमानों का प्रयोग करता है कि अनायास ही हास्य रस प्रस्फुटित हो आता है ।

शतकत्रय के रचनाकार महाराज भर्तृहरि ने भी अपने मुक्तक काव्य में वाच्यार्थ के माध्यम से विचारों को रखा है जो आज के ग्रामीण समाज में वृद्धों के मुख से सुनने को मिल जाता है । भर्तृहरि के सभी श्लोक व्यावहारिक जीवन यापन के सफलतापूर्वक जीने के निमित्त लिखे गये हैं जिनमें बहुत से ऐसे पद्य प्राप्त होते हैं जिनमें अभिधा शक्ति के द्वारा कथन किया गया है । इनके मुख्य शतक, “नीतिशतक” के कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं:
प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्त्रदंष्ट्रान्तरा-
त्समुद्रमपि संतरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम् ।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारये-
न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥४॥
शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं
महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् ।
अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथ वा
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ॥१०॥
“मूर्खपद्धति” नामक खण्ड से लिये गये इनश्लोकों में यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि इनमें कवि ने अपनी एक कथन की सिद्धि कई प्रकार के उदाहरणों एवं दृष्टांतों के द्वारा की है जिन्हे वाच्यार्थ के द्वारा व्यक्त किया गया है । श्लोक सं. १० में यह स्पष्ट दिखाई देता है, इस मुक्तक के अन्तिम चरण में प्रधान वाक्य का कथन किया गया है तथा उसकी सिद्धि के लिए प्रारम्भ के तीन चरणों में उसके लिए दृष्टांत दिया है ।
इसी प्रकार सम्पूर्ण नीतिशतक में ऐसे अनेक पद्य मिलते हैं जिनमें अभिधा शक्ति के द्वारा कथन किया गया है और प्रधान कथन की सिद्धि के लिए अनेक प्रकार के दृष्टांत दिये गये हैं ।
              उपरोक्त विभिन्न काव्य विधाओं के अनुशीलन के उपरान्त निष्कर्षतः यह प्रतिपादित किया जा सकता है कि वाच्यार्थ का स्थान न केवल प्रथम है अपितु वह प्रधान भी है । यद्यपि सभी आचार्यों ने वाच्यार्थ के संदर्भ में यही प्रतिपादित किया है कि लक्ष्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ को व्यक्त करने में भी वाच्यार्थ की ही मुख्य भूमिका होती है, तथापि कवियों ने न केवल वाच्यार्थ को इस रूप में लिया है अपितु उसका साक्षात् प्रयोग भी किया है ।


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची :-
·       श्रीमम्मटाचार्यविरचितकाव्यप्रकाशः, आचार्य विश्वेश्वर(व्याख्याकार)                              प्रकाशक- ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, जून २००९ ।
·       आचार्यविश्वनाथप्रणीतः साहित्यदर्पणः, डॉ. सत्यव्रत सिन्हा (सम्पादक)                             प्रकाशक- चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी. वर्ष २००७ ।
·       आनन्दवर्धनाचार्यविरचितध्वन्यालोक, आचार्य विश्वेश्वरसिद्धांतशिरोमणि (व्या.)    प्रकाशक- ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी. अगस्त २००९ ।
·       साहित्यदर्पण, डॉ. कमला देवी (व्याख्याकर्त्री),                                                            प्रकाशक- प्रयाग पुस्तक भवन, इलाहाबाद,२००९
·       महाकविकालिदासकृतमभिज्ञानशाकुन्तलम्, (सं.) डॉ. वासुदेवकृष्ण चतुर्वेदी                         प्रकाशक- महालक्ष्मी प्रकाशन, आगरा ।
·       मेघदूतम् (पूर्वमेघः) व्याख्याकार- श्री तरिणीश झा,                                                      प्रकाशक- रामनारायणलाल एण्ड कम्पनी, इलाहाबाद ।
·       श्रीमाघप्रणीतं शिशुपालवधम्, (व्याख्याकार) श्रीरामजी लाल शर्मा,                                 प्रकाशक- चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी. संस्करण २००९ ।
·       महाकविभारविप्रणीतं किरातार्जुनीयम्, मिश्रोऽभिराजराजेन्द्रः (व्याख्याकारः),                   प्रकाशक- अक्षयवट प्रकाशन, इलाहाबाद. दशम् संस्करण सन् २००६ ।
·       महाकविशूद्रकप्रणीतं मृच्छकटिकम्, डॉ. जगदीशचन्द्र मिश्र (व्याख्याकार)                        प्रकाशक- चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी. संस्करण-२००९ ।
·       महाकविभर्तृहरिविरचितं नीतिशतकम्, डॉ. राजेश्वर मिश्र (व्याख्याकार)                           प्रकाशक- अक्षयवट प्रकाशन, इलाहाबाद. वर्ष २००७ ।
·       भारतीय साहित्यशास्त्र कोश, डॉ. राजवंश सहाय ‘हीरा’ (लेखक)                                     प्रकाशक- बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना संस्करण २०००३ ।