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09 February, 2011

Javasakuna Jaataka kathaa





जवसकुणजातको
      अतीते वाराणसियं ब्रह्मदत्ते रज्जं कारेन्ते बोधिसत्तो हिमवन्तप्पदेसे रुक्खकोट्ठकसकुणो हुत्वा निब्बत्ति । अथेकस्स सीहस्स मंसं खादन्तस्स अट्ठि गले लग्गि, गलो उद्धुमाथि, गोचरंगह्णितुं न सक्कोति, खरा वेदना वत्तन्ति । अथ नं सो सकुणो, गोचरपसुतो दिस्वा साखाय निलीनो ‘किन्ते दुक्खं’ ति पुच्छि । सो तं अत्थं आचिक्खि । ‘अहं ते सम्म एतं अट्ठिं अपनेय्यं, भयेन पन ते सुखं पविसितुं न विसहामि, खादेय्यासि पि मं’ ति । ‘मा भायि सम्म , नाहं तं खादामि जीवितं मे देही’ ति । सो ‘साधु’ ति तं पस्सेन निपज्जपेत्वा ‘को जानाति किं पे’स करिस्सती’ति चिन्तेत्वा यथा मुख पिदहितुं न सक्कोति तथा तस्स अधरोट्ठे उत्तरोट्ठे च दण्डकं ठपेत्वा मुख पविसित्वा अट्ठिकोटिं तुण्डेन पहरि । अट्ठि पतित्वा गतं । सो अट्ठिं पातेत्वा सीहस्स मुखतो निक्खमन्तो दण्डकं तुण्डेन पहरित्वा पातेन्तो निक्खमित्वा साखग्गे निलीयि । सीहो नीरोगो हुत्वा एकदिवसं वनमहिसं बधित्वा खादति । सकुणो ‘वीमंसिस्सामि नं’ ति तस्स उपरिभागे साखाय निलीयित्वा तेन सद्धिं सल्लपन्तो पठमं गाथमाह—
अकरम्हसे  ते  किच्चं  यं  बलं  अहुवम्हसे  ।
मिगराज नमो त्यत्थु अपि किञ्चि लभामसे ॥
तं सुत्वा सीहो दुतियं गाथमाह—
मम लोहितभक्खस्स निच्चं  लुद्दानि  कुब्बतो ।
दन्तान्तरगतो सन्तो तं बहुं यं हि जीवसीति ॥
तं सुत्वा सकुणो इतरा द्वे गाथा अभासि—
अकतञ्जुं   अकत्तारं   कतस्स   अप्पतिकारकं  ।
यस्मिं कतञ्जुता न’ त्थि निरत्था तस्स सेवना ॥
यस्स   सम्मुखचिण्णेन  मित्तधम्मो न लब्भति ।
अनुसुय्यं  अनक्कोसं  सणिकं तम्हा अपक्कमे’ ति ॥
एवं वत्वा सो सकुणो पक्कामि ।




जवसकुण जातकम् का हिन्दी अनुवाद
  अतीत काल में वाराणसी में ब्रह्मदत्त के राज्य करते समय, बोधिसत्त्व हिमवत् प्रदेश में वृक्षकोटर के पक्षी के रूप में उत्पन्न हुए । कभी मांस खाते हुए (किसी) सिंह के गले में अस्थि फंस गयी, गला रुंध गया, आखेट ग्रहण करने में असमर्थ हो गया, उसे तीव्र वेदना हो रही थी । तब उस पक्षी ने शिकार से हटे हुए (सिंह को) देख कर शाखा में छिपकर ‘तुम्हे क्या दुःख है’ ऐसा पूँछा । इस (सिंह) ने उस (पक्षी) से वह बात कही । ‘सौम्य ! मैं तुम्हारी (गले में फँसी हुई) हड्डी को निकाल दूँगा, परन्तु, भय से तुम्हारे मुख में प्रविष्ट होने की हिम्मत नहीं कर रहा हूँ । मुझे भी खा लोगे ।’ ‘हे सौम्य ! डरो मत, मैं तुम्हे नहीं खाऊँगा । मुझे जीवन दो ।’ वह ‘अच्छा’ ऐसा कहकर पार्श्व से उसे लिटाकर ‘कौन जानता है यह क्या करेगा’ ऐसा विचार कर जिस प्रकार मुख न बन्द कर सके, ऐसे उस (सिंह) के अधर एवं उत्तर ओष्ठ में एक लकड़ी स्थापित कर , मुख में प्रविष्ट हो, उसने अस्थि के अग्रभाग को तुण्ड से गिरा दिया । अस्थि गिर गयी । वह (पक्षी) अस्थि को गिराकर, सिंह के मुख से निकल कर, चोंच से लकड़ी को गिराते हुए निकल कर शाखा में छिप गया । सिंह निरोग होकर एक दिन वन-महिष को मार कर खा रहा था । पक्षी ने ‘इसकी परीक्षा लेता हूँ’ ऐसा विचार कर उसके ऊपर शाखा में छिपकर उस (सिंह) के साथ संलाप करते हुए प्रथम गाथा कही—
         ‘शक्ति के अनुकूल मैंने आपका कार्य किया है । हे मृगराज ! आपको नमस्कार है । क्या मैं (भी) कुछ प्राप्त करूँ ?’
उसको सुनकर सिंह ने द्वितीय गाथा कही—
         ‘रक्तपान करने वाले , नित्य भयंकर कर्म करने वाले मेरे दाँतो के भीतर जा कर जो जीवित रहे, यही बहुत है ।’
ऐसा सुनकर शकुन ने दो अन्य गाथाएँ कहीं—
         ‘अकृतज्ञ , अकर्ता एवं किये हुए का उपकार न मानने वाले जिस व्यक्ति में कृतज्ञता नहीं है, उसकी सेवा करना व्यर्थ है । जिसके समक्ष चिर काल तक मित्र-धर्म का निर्वाह (होने की आशा) न हो उसके समीप से अति शीघ्र असूयारहित और आक्रोश-रहित होकर हट जाना चाहिये ।
ऐसा कह कर वह पक्षी चला गया ।


                        

2 comments:

  1. dear friend you did very good job. I like it.i think you will be more creative in future.I can learn a lot of things from you.

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  2. Thanks allot Vimal, if you are with me, i will must do it.

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